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Books - प्रज्ञा अभियान का दर्शन स्वरूप और कार्यक्रम

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT


प्रज्ञा योग की क्रिया परक साधना पद्धति

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First 29 31 Last

सर्व साधारण के लिये विशेषतया प्रज्ञा परिजनों के लिये सर्वसुलभ प्रज्ञा योग निर्देशित हुआ है। यह बाल-वृद्ध, नर-नारी सभी के लिये अति सरल किन्तु असाधारण रूप से फलप्रद है। प्रज्ञा योग के चार अंग हैं—
    (1)  आत्म-बोध-तत्वबोध
    (2)  जप-ध्यान
    (3)  चिंतन-मनन का योग-तप
    (4)  दिव्य अनुदानों का अवधारण।

विवरण इस प्रकार है—
(1) आत्म-बोध-तत्वबोध—
प्रातःकाल आंख खुलते ही आत्मबोध का चिंतन करें। मनुष्य जन्म को ईश्वर का सर्वोपरि उपहार अनुभव करें। इस अमानत को आत्म-कल्याण का स्वार्थ और विश्व-कल्याण का परमार्थ साधते हुए लक्ष्य प्राप्ति का अलभ्य अवसर मानें। हर सांस को मणि-मुक्तकों से भी बढ़कर बहुमूल्य समझें। आज के दिन को एक सम्पूर्ण जीवन मानकर उसके श्रेष्ठतम सदुपयोग की दिनचर्या बनायें। उसे निभाने की सुव्यवस्थित योजना बनायें। पन्द्रह मिनट इस प्रातःकाल की आत्मबोध साधना में लगने ही चाहिये।
रात्रि को सोने के पूर्व शैया पर पड़े-पड़े जीवन के अन्त का स्मरण करें। मृत्यु को अनिवार्य अतिथि मानें। उसके उपरान्त ईश्वर के दरबार में पहुंचने और जीवन सम्पदा के सदुपयोग—दुरुपयोग के सम्बन्ध में लेखा-जोखा मांगे जाने की बात सोचें। बरते हुए प्रमाद की परिणति निकृष्ट योनियों में भटकने, यंत्रणायें सहने और पतन पराभव के गर्त में गिरने की यथार्थता को समझें। लोक के साथ परलोक को भी जोड़ें। वर्तमान ऐसा बनायें जिससे निर्वाह ही नहीं भविष्य भी सधे। सोते समय इन्हीं भावनाओं को लेकर चिर निद्रा की गोद में चले जायें। आज के दिन की समीक्षा करें। बन पड़े दोष दुर्गुणों का पश्चात्ताप-प्रायश्चित करें और कल के लिए ऐसा विचार करें कि इसे आज की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ समुन्नत बनाना है। यह तत्वबोध साधना निद्रा से पूर्व पन्द्रह मिनट तो चलना ही चाहिए। उसमें कल्पना की चिह्न पूजा जैसी विडम्बना नहीं यथार्थता जैसी अनुभूति रहनी चाहिए।
(2) जप-ध्यान—
रात्रि को जल्दी सोयें। नित्य-कर्म से निवृत्त होकर जीवन का शुभारम्भ उपासना के मंगलाचरण समेत करें। उपासना के पांच प्रमुख अंग हैं—(क) आत्म-शोधन (ख) देवपूजन (ग) जप (घ) ध्यान (ङ) विसर्जन। इन पांचों को चिह्न पूजा की तरह नहीं निबटाना चाहिये वरन् समग्र श्रद्धा विश्वास भी उसमें जुड़ा रहना चाहिये। क्रिया के साथ भावना का जितना सघन समन्वय हो उतना ही उसमें आनन्द आयेगा, मन लगेगा और सत्परिणाम मिलेगा। उपरोक्त पांचों कृत्यों का सार संक्षेप इस प्रकार है—
    (क) आत्म-शोधन:—   पालथी पर बैठें। पांच कृत्य करें।

               (1)  पवित्रीकरण—शरीर पर जल छिड़कना।
               (2)  आचमन—चम्मच से तीन आचमन।
               (3)  शिखा स्पर्श-वन्दन।
               (4)  प्राणायाम—श्वांस को धीमी गति से गहरी खींचना-रोकना और बाहर निकालना।
               (5)  न्यास—बायीं हथेली पर जल रखकर दायें हाथ की पांचों उंगलियों से निर्धारित क्रम के अनुसार शरीर के प्रमुख अंगों से स्पर्श करना।
इन पांचों कृत्यों के साथ पवित्रता एवं प्रखरता की अभिवृद्धि की, मलीनता अवांछनीयता की निवृत्ति की भावना जुड़ी रहनी चाहिए। पवित्र एवं प्रखर व्यक्ति ही ईश्वर के दरबार में प्रवेश पाने और अनुग्रह उपलब्ध करने के अधिकारी होते हैं। इसलिए आत्म-कल्याण के मार्ग पर चलने वाले को सर्व प्रथम आत्म शोधन करना पड़ता है। इसी तथ्य पर स्मरण करने के लिए उपरोक्त पांच कृत्य करने होते हैं।
    (ख) देवपूजन:—   प्रज्ञा युग के अवतरण को—इस संधि वेला में महा प्रज्ञा—ऋतम्भरा गायत्री को—सभी जागृत आत्मायें अपनी उपासना का आधार केन्द्र मानें और पूजा कृत्य अभ्यास में हो तो उनका निर्वाह भी होता रह सकता है। महा प्रज्ञा का प्रतीक गायत्री माता का चित्र है। इसे सुसज्जित पूजा वेदी पर रखें। पवित्रता सम्पादन के उपरोक्त पांच कृत्य करने के बाद चित्र के प्रतीक माध्यम द्वारा विश्वव्यापी महा प्रज्ञा का करबद्ध नतमस्तक होकर नमन वन्दन करें।
घनिष्ठ स्थापना के पांच उपाय उपचार हैं इन्हें विधिवत् सम्पन्न करें।

    (1)  जल
    (2)  अक्षत
    (3)  पुष्प
    (4)  धूप-दीप
    (5)  नैवेद्य।

इन प्रतीक समर्पणों को आराध्य के सम्मुख प्रस्तुत करने का पंचोपचार कहते हैं। एक-एक करके एक छोटी तश्तरी में इन पांचों को पूजा अभ्यर्थना के उद्देश्य से समर्पित करते चलें। जल का अर्थ है—नम्रता, सहृदयता। अक्षत का अर्थ है—श्रमदान-अंशदान। पुष्प का अर्थ—प्रसन्नता, प्रगति, शोभा। धूप-दीप अर्थात् स्वयं जलकर सुगन्ध आलोक का वितरण—पुण्य परमार्थ। नैवेद्य—अर्थात् स्वभाव, चरित्र एवं व्यवहार में सज्जनता का माधुर्य। पांच उपचार कृत्यों के द्वारा व्यक्तित्व को सत्प्रवृत्तियों से सुसम्पन्न करने का संकल्प उभारा जाता है और विश्वास किया जाता है कि परमात्मा के साथ घनिष्ठता स्थापित करने में इन्हीं सत्प्रवृत्तियों को अपनाना आवश्यक है जो इन पंचोपचार कृत्यों के साथ भावरूप में अविच्छिन्न रूप से सम्बद्ध है।
    (ग) जप:—    गायत्री मन्त्र का जप न्यूनतम तीन माला अर्थात् प्रायः पन्द्रह मिनट नियमित रूप से किया जाय। अधिक बन पड़े तो अधिक उत्तम। माला का उद्देश्य घड़ी से भी पूरा होता है। होठ, कंठ, मुख हिलते रहें या आवाज इतनी मंद हो कि दूसरे इस उच्चारण को ठीक तरह न सुन सकें। जप को एक प्रकार की मल शोधक रगड़ माना जाय जिस पर बार-बार घिसने पर वस्तुयें चिकनी हो जाती है। साबुन रगड़ने से कपड़े का मैल छूटता है। स्नान के समय अवयवों को मलने से वे स्वच्छ होते हैं। बर्तनों की सफाई के लिए उन्हें मांजना पड़ता है। कमरे की सफाई के लिए बुहारी लगती है। इन सब में एक ही कार्य की कई-कई बार पुनरावृत्ति होती है। इसी प्रकार ईश्वर का नाम बार-बार लेने की जप प्रक्रिया को कषाय-कल्मषों, कुसंस्कारों का निवारण उपचार मानें। किसी को बुलाना हो तो कई-कई बार नाम लेकर पुकारना होता है। अन्तराल में जीवनक्रम में घुल जाने के लिए ईश्वर को आग्रहपूर्वक आमन्त्रित करना ही जप का प्रयोजन है। क्रिया के साथ-साथ परिशोधन और आमंत्रण की भावना भी उभरती रहे।
    (घ) ध्यान:—   शरीर के अंग अवयव जप कृत्य करते हैं मन को खाली न छोड़ें, परम तत्व में नियोजित रहने के लिए जप के साथ-साथ ध्यान भी करना पड़ता है। साकार ध्यान में गायत्री माता के अंचल की छाया में बैठने तथा उसका सुधा रस भरा प्यार अनवरत रूप से प्राप्त होने की भावना की जाती है। निराकार ध्यान में प्रभातकालीन स्वर्णिम सूर्य की किरणों को शरीर में प्रवेश करने की भावना की जाती है। जिस दिव्य ऊर्जा द्वारा अन्तःकरण में श्रद्धा, मस्तिष्क में प्रज्ञा, काया में निष्ठा के दिव्य अनुदान उतरने की मान्यता परिपक्व की जाती है। इन दोनों में से जो भी प्रिय लगे, अनुकूल पड़े, उस जप के साथ-साथ उथले मन से नहीं, वरन् सघन विश्वास के साथ यथार्थता भरी अनुभूति के साथ करना चाहिए। जप और ध्यान के समन्वय से ही चित्त एकाग्र रहता है और आत्म सत्ता पर उस कृत्य का महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है।
    (ङ) सूर्य अर्घ्यदान-पूर्णाहुति:—   पूजा वेदी पर रखे हुए छोटे कलश का जल सूर्य की दिशा में अर्घ्य रूप में चढ़ाया जाय। इसके लिए घर में तुलसी का थांवला रहे तो और भी उत्तम। जल को आत्म सत्ता का प्रतीक प्रतिनिधि माना जाता है और सूर्य को विराट् ब्रह्म विश्व का। अपनी सत्ता सम्पदा को समष्टि के लिए समर्पित-विसर्जित करने का भाव सूर्यार्घ्य में है। अर्घ्य जल वाष्प बनकर आकाश में उड़े। सुदूर क्षेत्र में मेघ न सही, ओस बिन्दु बनकर तो बरसे ही। वैभव समष्टिगत सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन में काम आये, यह सूर्यार्घ्य का भाव है। भगवान के प्रति एकत्व, अद्वैत, समर्पण-विसर्जन, शरणागति आदि अभिव्यक्तियों का व्यावहारिक स्वरूप एक ही है—हमारा जीवन-जल छोटे कलश तक सीमित न रहे। वह बाहर निकले, भगवान के, समष्टि के काम आये, व्यापकता में परिणत कर देना ही सूर्यार्घ्य का भाव उद्देश्य है। ईश्वर प्राप्ति के लिए इससे कम उदारता अपनाने पर बात बनती ही नहीं।
(3) चिंतन-मनन—
आमतौर से जीवनचर्या बहिर्मुखी प्रवृत्तियों में लगी और खपी रहती हैं। उसे उलटकर अन्तर्मुखी बनाना ही अध्यात्म उपक्रम है। इसके लिए चिंतन और मनन की दो साधनायें हैं। यह एक ऐसे एकान्त स्थान में की जानी चाहिए जिसमें घुटन, दुर्गन्ध, भगदड़, सर्दी-गर्मी, मच्छर-मक्खी आदि कारणों से चित्त उचटते नहीं। समय कोई भी फुरसत का चुना जा सकता है पर वह रहना नियत निर्धारित ही चाहिए। न्यूनतम इसमें पन्द्रह मिनट लगने चाहिए। इस अवधि में शरीर शिथिल और आंखें बन्द जैसी स्थिति रहनी चाहिए।
चिन्तन में आत्मशोधन और मनन में आत्म परिष्कार की प्रक्रिया रहती है। इसमें भविष्य निर्धारण के लिए भविष्य को नये सिरे से निर्धारित करना होता है। इसके लिए वर्तमान ढर्रे में आमूलचूल परिवर्तन करने जैसा साहस संजोने वाली योजना बनानी पड़ती है।
चिन्तन में चार असंयमों के वे चार छिद्र बन्द करने होते हैं जिनमें होकर ईश्वर प्रदत्त वैभव का सारा रस टपकता—धूल में मिलता रहता है। (1) इन्द्रिय संयम (2) समय-संयम (3) अर्थ संयम (4) विचार संयम। इन चारों को व्यावहारिक जीवन की तप-साधना कहते हैं। जीभ का चटोरापन और कामुक चिंतन की रोकथाम इन्द्रिय संयम है। समय संयम में एक क्षण भी अनुपयोगी बातों में न लगने देकर ऐसी व्यस्त दिनचर्या बनानी पड़ती है। जिससे व्यर्थ या अनर्थ की हरकतें बन पड़ने की कोई गुंजाइश ही न रहे। अर्थ संयम में औसत भारतीय स्तर का निर्वाह न्यायोचित उपार्जन एवं समाज ऋण से मुक्त होने के लिये अनुकरणीय अंशदान का बजट बनाकर चलना पड़ता है। अनुपयुक्त संचय और अपव्यय, दुरुपयोग से बचा लेने पर ही उनका समुचित लाभ मिल सकता है। विचार संयम में चिंतन को निरर्थक असामयिक, अनैतिक कल्पनाओं से हटाकर मात्र उपयोगी योजना, कल्पना एवं भावना के क्षेत्र में ही सीमाबद्ध रखना पड़ता है। इन चार संयमों को ही व्यावहारिक तप-साधन कहा गया है।
मनन के चार अंग हैं—
   (1)  आत्म-चिन्तन
   (2)  आत्म-सुधार
   (3)  आत्म-निर्माण
   (4)  आत्म-विकास ।

इनका स्वरूप इस प्रकार है—
    (1)  आत्म-चिन्तन—  वर्तमान मनःस्थिति एवं परिस्थिति की समीक्षा करके उसमें से उचित-अनुचित का पर्यवेक्षण, वर्गीकरण करना पड़ता है। यह
          आत्मसमीक्षा हुई।

    (2)  आत्म-सुधार—  आत्म सुधार में यह योजना बनानी पड़ती है कि अभ्यस्त अनुपयुक्तताओं के किस प्रकार पीछा छुड़ाया जाय।

    (3)  आत्म-निर्माण—  आत्म निर्माण में उन सत्प्रवृत्तियों को बढ़ाने की योजना बनानी पड़ती है जो अबतक अपने में उपलब्ध नहीं किन्तु प्रगति
          प्रयास के लिए आवश्यक है।

    (4)  आत्म-विकास—  आत्म विकास में अपने आप को विश्व नागरिक मानना पड़ता है और वसुधैव कुटुम्बकम् की उदार व्यापकता को व्यवहार में          सम्मिलित करना पड़ता है। संकीर्ण स्वार्थ परता से प्रेरित लोभ-मोह के भव-बन्धन तोड़ने होते हैं और सब में अपने को, अपने में सबको समझते
          हुए सुख और दुःख बांटने की उमंग उछालनी पड़ती हैं। संक्षेप में यही व्यावहारिक जीवन का योग साधन है। चिन्तन को तप और मनन को योग
          कहा गया है। इन दोनों को अपनाकर बढ़ते हुए कदम परम लक्ष्य तक पहुंचकर ही रहते हैं।
(4) विशिष्ट निर्धारण—
युग संधि की वेला में कुछ विशिष्ट, साधनायें सभी जागृत आत्माओं को करनी चाहिए। इनसे पवित्रता, प्रखरता, समर्थता एवम् प्रेरणा की इतनी मात्रा मिलती रहती है जिससे जागृत आत्माएं अपने विशिष्ट उत्तरदायित्व का युगधर्म का, भली प्रकार निर्वाह कर सकें।
इन 20 वर्षों में हिमालय के अध्यात्म ध्रुव केन्द्र से सृजन शिल्पियों के व्यक्तित्वों को उभारने वाले विशेष अनुदान वितरित किये जा रहे हैं। इन्हें ग्रहण करने के लिए रविवार या गुरुवार का समय निर्धारित करना चाहिए। सूर्योदय के एक घंटा पूर्व से लेकर सूर्योदय तक का एक घंटा इस प्रसारण वितरण के लिए निर्धारित है। अनुदान ग्रहण की ध्यान धारणा के लिए उसी अवधि में किसी अपेक्षित स्थान पर बैठना चाहिए।
स्थिर शरीर, शांत चित्त, कमर सीधी, हाथ गोद में, आंखें बन्द, ध्यान मुद्रा। इस पर बैठकर यह ध्यान करना चाहिए कि हिमालय के सर्वोच्च, हिमाच्छादित, सुमेरु शिखर पर स्वर्णिम सूर्य का उदय हुआ। किरणें उभरीं, साधक तक पहुंची और साधक के स्थूल, सूक्ष्म, कारण शरीर में प्रवेश करती हुई समग्र व्यक्तित्व में ओत-प्रोत हो गईं। कण-कण, नस-नस, रोम-रोम उस दिव्य ऊर्जा से अनुप्राणित हुआ। स्थूल शरीर में कर्मठता, सूक्ष्म शरीर में दूरदर्शिता और कारण शरीर में उदार आत्मीयता लबालब भर गई। निष्ठा, प्रज्ञा और श्रद्धा में समूचा व्यक्तित्व सराबोर हो गया। तृप्ति, तुष्टि और शांति की अजस्र अनुभूति हो चली। महान परिवर्तन सम्पन्न हुआ। क्षुद्रता महानता में, कामना, भावना में, लिप्सा उदारता में बदल गई। आत्मा और परमात्मा के बीच घनिष्ठता उमगी और दोनों की सत्ता आग-ईंधन की तरह मिलकर एक हो गई। इस अनुभूति के कल्पना चित्र में पन्द्रह मिनट डूबे रहा जाय। हिमालय की दिव्य किरणों के सहारे मिलने वाले ऊर्जा अनुदान की साधक में स्थापना सुनिश्चित यथार्थता के रूप में प्रतिष्ठित होने की बात का विश्वास भी इस अनुदान साधना के साथ जुड़ा रहना चाहिए।
रविवार या गुरुवार में से जिस दिन भी प्रातःकाल यह ऊर्जा अनुदान की ध्यान साधना के लिए समय नियत किया जाय उसी दिन अस्वाद व्रत, ब्रह्मचर्य एवं दो घंटे के मौन का व्रत भी निभाया जाय।
युग संधि के 20 वर्षों में सभी जागृत आत्माओं को प्रस्तुत संकट निवारण तथा उज्ज्वल भविष्य के निमित्त पांच मिनट की एक विशेष साधना कराई जा रही है। सूर्योदय के समय, सभी लोग खड़े होकर मन ही मन चौबीस बार गायत्री मंत्र का मानसिक जप करें और उसका प्रतिफल विश्व कल्याण के लिए अनन्त आकाश में विसर्जित कर दें। एक ही समय, एक से विचार के लोग, एक ही कार्य-पद्धति को अधिक लोग अपनाते हैं तो उसकी प्रचण्ड शक्ति का सूक्ष्म वातावरण पर भारी प्रभाव पड़ता है। अस्तु, इन दिनों यह सरल साधना अधिकाधिक लोगों से सप्ताह में एक दिन नियमित रूप से कराई जानी चाहिए। इसके लिए भी रविवार या गुरुवार का दिन उत्तम है।
यह चार सूत्री प्रज्ञायोग सर्वसाधारण के लिए है। इसके आगे की उच्चस्तरीय साधनायें जिन्हें करनी हों, उन्हें शांतिकुंज हरिद्वार पहुंचकर कल्प-साधना एवं अपने स्तर की विशिष्ट साधनायें दिव्य वातावरण एवं दिव्य संरक्षण में करनी चाहिए।
***


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युगसंधि महापुरश्चरण और संकट निवारण
Type: TEXT
Language: HINDI
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गर पूछे कोई मुझसे तो मैं कहूँ कि स्वर्ग बस यहीं है
Type: TEXT
Language: EN
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गर पूछे कोई मुझसे तो मैं कहूँ कि स्वर्ग बस यहीं है
Type: TEXT
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आध्यात्मिक कायाकल्प का विधि- विधान-२
Type: TEXT
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ऋगवेद भाग 2-A
Type: SCAN
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ऋगवेद भाग 2-A
Type: SCAN
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भगवान को मत बहकाइए
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भगवान को मत बहकाइए
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गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
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Articles of Books

  • प्रथम अध्याय— युग-सन्धि की प्रसव-पीड़ा और प्रज्ञावतरण
  • इस सुयोग-सौभाग्य को खोयें नहीं
  • स्वयं बदलें—प्रवाह को उलटें
  • युगशिल्पी अहंमन्यता के विष-पान से बचे रहें
  • अध्यात्म क्षेत्र की वरिष्ठता—विनम्रता पर निर्भर
  • प्रज्ञा परिजनों के सप्त महाव्रत
  • सृजन यज्ञ में हमारी श्रद्धांजलियां समर्पित होनी ही चाहिए
  • द्वितीय अध्याय— प्रज्ञा संस्थानों का निर्माण और उनके उत्तरदायित्व
  • प्रज्ञा संस्थानों को प्राणवान रखा जाय
  • कार्यकर्ताओं की नियुक्ति को अनिवार्य प्राथमिकता दी जाए
  • ‘‘ज्ञानरथ’’ समय की महती आवश्यकता
  • झोला पुस्तकालय चलायें—युग चेतना लायें
  • लोकरंजन और लोकमंगल का समन्वय स्लाइड प्रोजेक्टर
  • आदर्श वाक्य—बोलती दीवारें
  • जन्म दिवसोत्सव, देखने में छोटा किन्तु परिणाम में महान
  • एकाकी प्रयत्न से चल पड़ने वाले प्रज्ञा मंदिर
  • इस वर्ष के दो विशेष अभियान
  • तृतीय अध्याय— प्रज्ञा परिवार का पुनर्गठन
  • शोध-संसद— ब्रह्मवर्चस् शोध के लिए मनीषा को युग निमंत्रण
  • युग प्रवक्ता संसद— धर्मतन्त्र की गरिमा समझें और उसे परिष्कृत करें
  • तीर्थ यात्रा की पुण्य प्रक्रिया का पुनर्जीवन
  • युग शिल्पी संसद— युग शिल्पी संसद की कार्य पद्धति का श्रीगणेश
  • युग गायक संसद— वाणी के कलाकार एक कदम आगे आयें
  • उपाध्याय संसद— उपाध्याय वर्ग नई पीढ़ी को युग चेतना से अनुप्राणित करें
  • युग प्रहरी संसद— प्रज्ञा परिजनों के लिए अणुव्रत
  • सम्पर्क संसद— जिन्हें जन सम्पर्क का सुयोग प्राप्त है वे उसमें कुछ और भी जोड़ें
  • भविष्य निर्माता संसद— युवा पराक्रम नव सृजन की दिशाधारा अपनाये
  • चतुर्थ अध्याय— युग शिल्पी प्रशिक्षण का संक्षिप्त पाठ्यक्रम
  • प्रज्ञा योग हृदयंगम करने योग्य तत्वदर्शन
  • प्रज्ञा योग की क्रिया परक साधना पद्धति
  • आसन प्राणायाम से आधि-व्याधि निवारण
  • जड़ी-बूटियों से स्वास्थ्य संरक्षण एकौषधि उपचार पद्धति
  • दिव्य औषधियों द्वारा आध्यात्मिक कायाकल्प
  • देव संस्कृति का पुनरुत्थान और तुलसी अभियान
  • आन्तरिक कायाकल्प हेतु आहार साधना
  • धर्मानुष्ठानों के क्रियाकृत्य उद्देश्यपूर्ण रहें
  • छोटे-बड़े धार्मिक आयोजन की व्यापक व्यवस्था चल पड़े
  • देव दक्षिणा प्रत्येक धर्मानुष्ठान का अविच्छिन्न अंग
  • युग-संगीत उभरे और व्यापक बने
  • प्रज्ञा पुराण कथा—उद्देश्य और स्वरूप
  • प्रज्ञा आयोजनों की तैयारी इस प्रकार करें
  • प्राणवान कार्यकर्ता अपने क्षेत्रों का उत्तरदायित्व संभालें
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Shantikunj has emerged over the years as a unique center and fountain-head of a global movement of Yug Nirman Yojna (Movement for the Reconstruction of the Era) for moral-spiritual regeneration in the light of hoary Indian heritage.

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