
तीर्थ यात्रा की पुण्य प्रक्रिया का पुनर्जीवन
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तीर्थयात्रा का पुण्यफल शास्त्रकारों ने इतना अधिक बताया है कि समूचे धर्मकृत्यों का माहात्म्य और तीर्थयात्रा की परिणति तराजू पर तोलकर बराबर ठहराई जा सकती है। गृहस्थ, विरक्त सभी के लिए यह सुलभ है। साथ में पर्यटन का विनोद मनोरंजन भी उसके साथ जुड़ा रहने से सर्व साधारण से उसे पूरे उत्साह से अपनाया भी है।
तीर्थों का महात्म्य पढ़ने सुनने पर उसमें अत्युक्ति की भरमार प्रतीत होती है। प्रतिमा दर्शन या जल स्नान से पाप नाश स्वर्ग प्राप्ति जैसे महान, फलों का उपलब्ध हो सकना किसी भी प्रकार बुद्धि ग्राह्य नहीं है। इतने स्वल्प मूल्य में इतनी बहुमूल्य विभूतियां मिलने लगें तो फिर कोई कष्ट कर जीवन यापन का मार्ग क्यों अपनाने जाएगा? जिस कार्य में जितनी पूंजी लगती है उसी अनुपात से उसकी परिणति, उपलब्धि भी हाथ लगती है। इस शाश्वत तथ्य को झुठलाया नहीं जा सकता। कम लागत में बहुत फायदा होने की बातें ठगों द्वारा अनाड़ियों से ही की जाती हैं। विवेकवान सदा से उचित मूल्य पर ही विश्वास करते हैं।
तीर्थों का पुण्यफल प्रतिपादन करने, कराने वाले शास्त्र ऋषि और आप्तजन झूठे नहीं कहे जा सकते। साथ ही यह बात भी गले नहीं उतरती कि पर्यटन कुछ दर्शन झांकी करने, डुबकी लगाने और जिस-तिस दान दक्षिणा के पैसे बिखेरने भर से स्वर्ग मुक्ति के अधिकारी बन सकते हैं या पापकर्मों से छूट सकते हैं। इस असमंजस के निवारण की आवश्यकता समझने वाले जब तथ्यों को खोजते और बुद्धि पर जोर देते हैं तो उन्हें इस निष्कर्ष पर पहुंचना पड़ता है कि तीर्थ यात्रा के साथ कोई उच्चस्तरीय उद्देश्य एवं कार्यक्रम भी जुड़े होने चाहिए। भले ही आज उन्हें बुरी तरह भुला दिया गया हो।
तीर्थयात्रा का शास्त्रीय स्वरूप है—धर्म प्रचार की पदयात्रा। आज उस निर्धारण का प्राचीन स्वरूप लुप्तप्राय होता जा रहा है। उनका स्थान पर्यटन, मनोरंजन ने ले लिया है। यों पर्यटन भी एक स्वस्थ मनोरंजन है। उससे भी घर-घुसे रहने की ऊब दूर होती है। नई-नई जगहें जाने, देखने से अनुभव बढ़ता है। धन के वितरण का यह अर्थ शास्त्र सम्मत उपाय है। व्यापारी, मजदूर, वाहन, होटल सभी लाभान्वित होते हैं और सरकार को अनेकानेक माध्यमों से टैक्स मिलता है। पर्यटन को संसार भर में प्रोत्साहन दिया जाता है और उसे आकर्षक बताया जाता है। वह प्रक्रिया अपने ढंग से चले पर तीर्थयात्रा का धर्म प्रयोजन उसके साथ जोड़कर गुड़-गोबर एक न किया जाय—इसी में विवेकशीलता है।
पर्यटन, मनोरंजन के विरुद्ध यहां एक शब्द नहीं कहा जा रहा है और न वहां बनें दर्शनीय स्थानों को न देखने की अश्रद्धा उत्पन्न की जा रही है। कहा इतना भर जा रहा है कि तीर्थ यात्रा के उस मूलभूत स्वरूप का विस्मरण न किया जाय जिसे ध्यान में रखते हुए ऋषियों में महात्म्य वर्णन में शास्त्रों के इतने पृष्ठ रंगे और उस प्रव्रज्या पर निकलने के लिए धर्म प्रेमियों को इतना ललचाया, उकसाया कि आज उसके पीछे अत्युक्ति, दुरभिसन्धि की दुर्गन्ध तक सूंघी जा सकती है। विलासी परिभ्रमण और दर्शन, झांकी की भगदड़ भर की संगति उस पुण्यफल के साथ किसी भी प्रकार नहीं बैठती जिससे अध्यात्म क्षेत्र के उच्चस्तरीय प्रतिफलों और भौतिक मनोकामना पूर्ति की आशा बेध सके। इस सन्दर्भ में विवेक ने हर विचारशील को गंभीरतापूर्वक विचार करने और किसी उपयुक्त निष्कर्ष पर पहुंचने की चुनौती दी है। उनकी बात दूसरी है जो परम्पराओं का मनमाना अर्थ लगाते और ठगने, ठगाने का अवसर हाथ से नहीं जाने देना चाहते। लकीर के फकीर बने रहने में ही भलाई और कमाई देखते हैं।
कहा जा चुका है कि जिस तीर्थयात्रा का धर्म कृत्यों में श्रेष्ठतम स्थान दिया और अजस्र पुण्यफलदायक बताया गया है, उसका वास्तविक स्वरूप धर्म प्रचार की पदयात्रा के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। जन-जन में धर्मधारणा की प्रतिष्ठापना करना यही वह ब्रह्मदान है जिसे सीप में स्वांति बूंद पड़ने पर मोती बनने की उपमा दी जाती है। साधु, ब्राह्मण, वानप्रस्थ, परिव्राजक एवं उदारचेता इस उच्चस्तरीय सेवा धर्म का परिपालन करते रहे हैं। हर कोई उपयुक्त सान्निध्य, सत्संग का लाभ उठाने के लिए दूर-दूर तक नहीं जा सकता। ऐसे लोगों को हित साधन इसी में बन पड़ता है कि कोई पुण्यात्मा स्वयं ही उनके यहां कृपा पूर्वक पधारे और ऊंचा उठाने, आगे बढ़ाने की अमृत वर्षा में उन्हें कृत कृत्य बनाये। अशिक्षित, पिछड़े देहातों के बाहुल्य वाले अपने देश में तो इस बात की और भी अधिक आवश्यकता है कि लोक चेतना में घुसी हुई प्रतिगामिता हो हटाया और प्रगतिशीलता को जमाया जाय। आदर्शवादिता का नाम ही धर्म है। उत्कृष्टता का ही दूसरा नाम अध्यात्म है। स्वप्न लोक की अनगढ़ गाथा, कल्पनाओं में भावुकजनों को उछाल देना और फिर उन्हें अन्ततः निराश, अश्रद्धा के गर्त में गिरने के लिए विवश कर देना आज की तथाकथित धार्मिकता, विडम्बना, व्यवसाय बन गया है। पर वस्तुतः वह अपने असली रूप में वैसा है नहीं। धर्म का अर्थ प्रगतिशीलता और शालीनता का समन्वय। अभ्युदय और श्रेष्ठता की अविच्छिन्न समग्रता। धर्म प्रचार का तात्पर्य है इन्हीं तथ्यों का लोक मानस में वाणी अथवा कर्मकाण्डों की सहायता से समावेश करने वाली योजना का क्रियान्वयन। तीर्थ-यात्रा में यही करना होता है। पद यात्रा में धर्म प्रचार मंडली निकलती है और मिलने वाले राहगीरों, गांव, पोरवों में चलते चलाते यथा सम्भव प्रेरणायें देते चलना और रात्रि में जहां विश्राम हो वहां कथा कीर्तन का ज्ञान यज्ञ रच देना। यही है तीर्थयात्रा का पुरातन एवं वास्तविक स्वरूप।
बादल खेत-खेत पर बरसाते जाते हैं। खेतों की इतनी सामर्थ्य कहां कि वे पंख लगाकर बादलों तक ऊंचे पहुंचें। हवा किसी की नासिका में प्रवेश करने और प्राण संचार करने के लिए स्वयं ही बिना बुलाये दौड़ लगाती है। प्राणियों को इतनी सुविधा कहां कि पवन देवता के लोक तक पहुंचें और अपनी आवश्यकता बताकर पल्ला पसारें। बाढ़, भूकम्प, अग्निकांड, दुर्भिक्ष, महामारी, दुर्घटना आदि से आपत्तिग्रस्तों को उदारचेताओं का पता पूंछते-पूंछते उनके दरवाजे में पहुंचना और सहायता की याचना करना वहां सम्भव होता है? उदार स्वयं ही समाचार पाते ही दौड़ पड़ते हैं और अनुरोध की प्रतिज्ञा किए बिना ही अपना काम हर्ज करे, हानि सहन करते हुए भी जरूरत मन्दों की सेवा सहायता करते देखे जाते हैं। जिनके अन्तराल में धर्म चेतना उमंगती है उन्हें भी यही करना पड़ता है कि उत्कृष्ट दृष्टिकोण के अभाव में विविध शोक संताप सहते दुर्गतिग्रस्त लोगों के यहां बिना बुलाये पहुंचे और उन्हें प्रगतिशीलता का महात्म्य समझाते हुए सुधार परिष्कार की प्रेरणायें समझने, हृदयंगम करने और अपनाने में समर्थ, सहमत बनाये। यही है धर्म प्रचार। अमुक कर्मकांडों की लकीर पीटने, चिह्न पूजा करते रहने भर से वास्तविक धर्म की सेवा साधना कैसे बन पड़ेगी?
तीर्थयात्रा का महात्म्य और पुण्यफल इसी धर्म प्रचार पद यात्रा के साथ जुड़ा होता है, यदि तथ्य एवं प्राण जीवित रखा गया है। पर्यटन में उसका समुचित समावेश है तो समझना चाहिए कि सच्ची तीर्थयात्रा बन पड़ी और क्रिया की उत्कृष्टता वास्तविक पुण्य फल भी प्रदान करके रहेगी। वैसा न हो और भ्रम जंजाल में धक्के खाते, पैसा गंवाते, समय गंवाते हुए लोगों की भ्रम ग्रस्तता को देखकर आंसू ही बहाये जा सकते हैं।
प्रज्ञा अभियान के अन्तर्गत देव संस्कृति के हर पथ को पुनर्जीवन प्रदान करने के प्रबल प्रयत्न चल रहे हैं। इनमें एक अतिमहत्वपूर्ण पक्ष है—तीर्थयात्रा का जीर्णोद्धार, उसे दुर्गति से उबारकर यथार्थ की गौरव गरिमा के राजसिंहासन पर प्रतिष्ठित कराना। इसके लिए दो कार्यक्रम हैं। एक तीर्थ स्थानों की, पुरातन विधि व्यवस्था का अभिनव निर्धारण। दूसरा है तीर्थ—यात्रा पर निकलने वालों की कार्यपद्धति में धर्म प्रेरणा का समावेश।
शांतिकुंज को गायत्री तीर्थ के रूप में विकसित किया गया है वहां अध्यात्म परिष्कार के लिए कल्प प्रक्रिया, लोकसेवियों के लिए युग शिल्पी शिक्षा, गृहस्थ परिजनों के लिए जीवन साधना के त्रिविध सत्रों का समावेश है। स्थान कम और आवेदन कर्त्ता अधिक होने से भी सभी को थोड़ा लाभ देने की दृष्टि से उपरोक्त सत्र सीमित अवधि के रखे गये हैं। गायत्री तीर्थ का वातावरण ऐसा बनाया गया है कि वहां छाई रहने वाली अदृश्य प्रेरणाओं से परोक्ष लाभ हर तीर्थ सेवी को उत्साहवर्धक मात्रा में मिल सके। भूतकाल का प्रायश्चित, व्यक्ति विकास से षोडश संस्कार, अतिरिक्त समर्थता प्राप्त करने के विशेष अनुष्ठान, भविष्य निर्धारण के समाधान, परामर्श निर्धारण एवं संकल्प इन सभी प्रक्रियाओं का गायत्री तीर्थ वैसा ही समावेश है जिसमें थोड़े समय रहने वाला भी कुछ नई अनुभूति पा सके, संतोष की सांस ले सके और उज्ज्वल भविष्य का पुलकन भरा सपना देख सके।
तीर्थ यात्रा पर प्रज्ञा परिजनों को निकलने के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है कि वे साइकिल को वाहन—कदम का समन्वय समझ सकते हैं और आवश्यक सामान लादने और यात्रा का श्रम सरल करने की दृष्टि से इसका उपयोग कर सकते हैं। युग धर्म के अनुरूप उपकरण को भी पद यात्रा का ही एक प्रकार माना जा सकता है। पद यात्रा कहां तक, किस मार्ग से हो इसका निर्धारण मंडली ने कितना समय इसके लिए निकाला इस आधार पर पथ चक्र बन सकता है और विराम स्थलों का निर्धारण हो सकता है। इसमें प्राचीन तीर्थों के दर्शन आवश्यक नहीं, आदर्शवादी घटनायें जहां हुई हों, चरित्रनिष्ठा लोक सेवियों की जो कर्म भूमि रही हो, जहां अभी भी लोक सेवा की सत्प्रवृत्तियां चल रही हों, उन स्थानों की तीर्थ मानने में किसी विवेकशील को रत्तीभर भी कठिनाई नहीं होनी चाहिए। देव प्रतिमाओं की तरह सत्प्रवृत्तियों के केन्द्र भी नमन वन्दन के अधिकारी हैं। उनके दर्शन, सान्निध्य से भी प्रेरणा प्राप्त की जा सकती है। तदनुसार पुण्यफल प्राप्त करने का भी आधार बन सकता है। रास्ते में मिलने वाले राहगीरों के साथ विचार विनियम मार्ग के गांव पुरवों की दीवारों पर गेरू या खड़िया से आदर्श वाक्य लेखन, जहां सुस्ताना हो और दस बीस की उपस्थिति दृष्टिगोचर होती हो वहां झोले में से ढपली मजीरा निकालकर युग चेतना के गीत आरम्भ कर देना और फिर आगे बढ़ जाना। रात्रि में कथा कीर्तन का ज्ञान यज्ञ हर विराम स्थान पर बड़ी सरलता के साथ किया जा सकता है। पूर्व सूचना होने से लोग सहज ही इकट्ठे हो जाते हैं। अन्यथा गीत गाते हुए पीत वस्त्र धारण कर पीली धर्म ध्वजा के साथ एक धर्म फेरी गली कूंचों से स्वयं ही निकाली जाय और अपने आगमन का उद्देश्य तथा सत्संग का स्थान घोषित करते रहा जाय तो देहातों में कहीं भी उपस्थिति कम होने की शिकायत नहीं रहेगी। शहरों की कुरुचि पूर्ण मनःस्थिति में यह प्रयोग संदिग्ध भी हो सकते हैं पर वहां जाया ही क्यों जाय? जाना ही हो तो गरीबों की पिछड़ी बस्तियों को ही देहात मानकर वहां अपनी सेवा साधना का धर्म ध्वजा फहराया जा सकता है। यह हुई क्षेत्रीय तीर्थ यात्रा की पदयात्रा। जिसके आयोजन तनिक सी सुविधा मिलते ही, तनिक सा उत्साह जगता हो तो कार्यक्रम बन जाना चाहिए। वर्ष में ऐसी कई-कई तीर्थ यात्रायें, भिन्न-भिन्न पथ चक्रों का निर्धारण करते हुए चलाई जा सकती हैं—चल सकती हैं।
एक और भी उपाय है कि अपने स्थान से गायत्री तपोभूमि मथुरा एवं गायत्री तीर्थ हरिद्वार की तीर्थ यात्रा पर निकला जाय एक रास्ता जाने का दूसरा आने का निर्धारित किया जाय। शांतिकुंज में प्रज्ञा परिजनों के साप्ताहिक सत्र चलते हैं उनमें सम्मिलित रहा जाय। इस प्रकार यह भी एक धर्मानुष्ठान बन जाता है। इसके लिए सभी प्रज्ञा परिजन योजना बनायें और पूर्व सूचना देकर मण्डली समेत चल पड़ें।
तीर्थ यात्रा की ऋषि प्रणीत, शास्त्रानुमोदित परम्परा यही है। इसमें लोक मानस के परिष्कार का युग धर्म जुड़ जाने से उनकी महिमा, गरिमा, उपयोगिता एवं आवश्यकता और भी अधिक बढ़ जाती है।