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Books - प्रज्ञा अभियान का दर्शन स्वरूप और कार्यक्रम

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT


सृजन यज्ञ में हमारी श्रद्धांजलियां समर्पित होनी ही चाहिए

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जो नितान्त व्यस्त एवं विवश हैं—जो जन सम्पर्क के लिए नहीं जा सकते, सार्वजनिक सेवा का अवसर जिन्हें उपलब्ध नहीं है। उनके लिए घर रहकर भी आत्म निर्माण और परिवार निर्माण की सप्तसूत्री योजना प्रस्तुत की गई है और आशा की गई है कि इस सरल कार्यक्रम में से जितना जिससे बने उतना तो व्यवहार में उतारें ही। व्यस्त प्रज्ञा परिजनों की सप्तसूत्री योजना इस प्रकार है—
(1)   उपासना में निष्ठा और नियमितता का अनुपात बढ़ाया जाय। गायत्री मंत्र का जाप, प्रकाशपुंज सविता का ध्यान, न्यूनतम पन्द्रह मिनट तो किया
       ही जाय। घर के सदस्यों को भी आद्यशक्ति के प्रतीक के सम्मुख तीन मिनट नमन-वन्दन के लिए सहमत किया जाय। घर में आस्तिकता,
       धार्मिकता का वातावरण बनाया जाय। सामूहिक प्रार्थना, आरती, सहगान का क्रम चलाया जाय।
(2)   जीवन-साधना के लिए एकांत चिन्तन-मनन का कोई समय निर्धारित रखा जाय। आत्म समीक्षा, आत्म सुधार, आत्म समर्पण, आत्म विकास के
       लिए आज की स्थिति में जितना सम्भव हो उसके लिए कदम बढ़ाया जाय। इन्द्रिय संयम, समय संयम, अर्थ संयम और विचार संयम का
       अभ्यास निरन्तर जारी रखा जाय।
(3)   परिवार को सुसंस्कारी, स्वावलम्बी बनाने का ध्यान भी उनके निर्वाह एवं भविष्य की तरह ही रखा जाय। घर के लोगों को साथ लेकर श्रमशीलता,       मितव्ययिता, सुव्यवस्था, शिष्टता, उदार सहकार के पारिवारिक पंचशीलों का अभ्यास कराया जाय।
(4)   घर के हर सदस्य को स्वाध्याय का चस्का लगाया जाय। छोटा घरेलू पुस्तकालय बनाया जाय जिसमें प्रचार साहित्य पहुंचता रहे। हर सदस्य
       अबकी अपेक्षा कल अधिक शिक्षित बनने के लिए प्रोत्साहित किया जाय और उसकी लिस्ट बनाई जाय। नित्य कथा-संस्मरण सुनाने की ज्ञान
       गोष्ठी हर घर में चलें।
(5)   हरीतिमा संवर्धन के लिए आंगन में  तुलसी का थांवला देवालय की तरह प्रतिष्ठित किया जाय। उसकी अर्घ्य जल, अगरबत्ती, परिक्रमा जैसी
       सरल पूजा करली जाय। घरवाड़ी, शाकवाटिका, आंगनवाड़ी, छप्परवाड़ी, छतवाड़ी लगाने का प्रबन्ध किया जाय।
(6)   अवांछनीयता उन्मूलन के लिये आवश्यक साहस जगाया जाय। अभ्यस्त मूढ़ मान्यताओं के लिए एवं अनैतिक अवांछनीयताओं को बुहारने
       हटाने का विवेकयुक्त मनोबल उभारा जाय। खर्चीली शादियां, जाति-पांति के आधार पर ऊंच-नीच, पर्दाप्रथा, भिक्षा-व्यवसाय, मृतक भोज
       जैसी कुरीतियों को, नशेबाजी, फैशन, आलस्य, अपव्ययिता, अशिष्टता जैसे कुप्रचलनों को अपने घर से हटाया जाय। जहां इनका प्रचलन हो
       वहां असहयोग रखा जाय।
(7)   सम्पर्क क्षेत्र में आलोक वितरण के लिए सहज ही मिलने-जुलने वालों को अपना प्रज्ञा साहित्य पढ़ने देने, वापस लेने का सिलसिला चलाया जाय।
       अपने कमरों में आदर्शवाक्यों का सैट टंगा रखा जाय।
यह न्यूनतम सप्तसूत्री कार्यक्रम है जो आत्म निर्माण एवं परिवार निर्माण की दृष्टि से महत्वपूर्ण और दूरगामी सत्परिणाम उत्पन्न कर सकता है।
इस वर्ष से दो आन्दोलन विशेष रूप से हाथ में लेने और उन्हें व्यापक बनाने का निश्चय किया गया है। उसमें एक है अपने परिवार के लड़कों की शादियां बिना दहेज एवं धूमधाम करने की प्रतिज्ञा तथा खर्चीली दहेज वाली शादियों में सम्मिलित न होने, असंयोग करने की प्रतिज्ञा। दूसरा है हरीतिमा संवर्धन। घर-घर में तुलसी की स्थापना। आंगन, छप्पर तथा छत पर शाक वाटिका, पुष्पवाटिका लगाना।
इनमें से प्रथम सुधारात्मक है, दूसरा सृजनात्मक। गांधीजी ने नमक सत्याग्रह तथा शराब की दुकानों पर धरना, यह दो कार्यक्रम सत्याग्रह आन्दोलन के समय चलाये थे। वे देखने में छोटे थे किन्तु लोकमानस को विशेष दिशाधारा देने में समर्थ रहने कारण स्वतन्त्रता का बीजारोपण करने में सफल हुए। प्रज्ञा अभियान के अवांछनीयता उन्मूलन में खर्चीली शादियों के विरुद्ध विद्रोह खड़ा किया है और सृजन की अनेकानेक प्रवृत्तियों को अपनाने की दृष्टि से छोटा-सा शुभारम्भ अणुव्रत, घरों में हरियाली उगाने के रूप में प्रारम्भ किया है। यही दोनों प्रवृत्तियां आगे चलकर गलाई-ढलाई की उभयपक्षीय आवश्यकतायें व्यापक रूप में सम्पन्न करेंगी। आन्दोलन की दृष्टि से इस वर्ष इन दोनों को अग्रगामी बनाने के लिए हस्ताक्षर अभियान तथा व्रतशील संकल्प के रूप में पूरी तत्परता के साथ प्रयत्नशील होना चाहिए।
गायत्री यज्ञों के अवसर पर कई भावनाशील देवदक्षिणा की श्रद्धांजलि प्रस्तुत करते हैं। हरिद्वार आने पर कई व्यक्ति गुरुदीक्षा, मन्त्रदीक्षा की बात कहते हैं। उन सभी उदारमना लोगों से कहा गया है कि वे कुछ पैसे देने मात्र को गुरुदक्षिणा, देवदक्षिणा न समझें। वरन् यह विचार करें कि महाकाल की याचनाओं में से किन्हें, किस मात्रा में किस प्रकार पूरी करने के लिये अपनी श्रद्धांजलि प्रस्तुत करेंगे। इसी पराक्रम पुरुषार्थ के रूप में प्रकट होने वाली भाव श्रद्धा ही सार्थक मानी जाती है। हमारे मनोयोग एवं समयदान का महत्वपूर्ण अंश उपरोक्त कार्यों में लगे तो उसे उच्चस्तरीय दक्षिणा समझना चाहिए।
दक्षिणा के साथ दान की शर्त भी जुड़ी हुई है। युग देवता ने हर जागृत आत्मा से देवदक्षिणा की याचना की है। दक्षिणा का उल्लेख ऊपर हो चुका है। दान में समयदान, श्रमदान, अंशदान को नवसृजन जैसे महान प्रयोजन में लगाने की  इन दिनों महती आवश्यकता है। अपने समय का एक अंश हम सब नियमित रूप से नवसृजन में लगायें और उसका विधिवत् संकल्प करें। इसी प्रकार अपनी आजीविका का एक महत्वपूर्ण अंश मासिक रूप से युग परिवर्तन के पुण्य प्रयोजन के लिए निश्चित रूप से निकालते रहने का निश्चय करें। यदाकदा कुछ दान-दक्षिणा देने से काम चलने वाला नहीं है। युग सृजेता जागृत आत्माओं को नियमित समयदान, अंशदान का संकल्प श्रद्धा पूर्वक करना चाहिए और उसका निष्ठापूर्वक निर्वाह करना चाहिए।
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