
प्रज्ञा पुराण कथा—उद्देश्य और स्वरूप
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प्रगतिशील जीवन में वाणी का मधुर होना आवश्यक है। जिस प्रकार हाथ-पैर चलने से पेट भरता और जीवनक्रम का ढर्रा चलता है, उसी प्रकार वाणी के मुखर होने से पारस्परिक सहयोग बढ़ता, समाज सम्पर्क बनता और प्रगति का अवरुद्ध द्वार खुलता है। लोक सेवा में सबसे बड़ा परमार्थ किसी भी दिशा-धारा को शालीनता की दिशा में मोड़ देना है। इसके लिए भी वाणी का मुखर होना आवश्यक है। न्याय पाने और न्याय दिलाने के लिए भी भाषण एवं सम्भाषण कला आनी चाहिए। वाणी प्रत्यक्ष सरस्वती है, जो उसकी आराधना करता है, वह स्नेह, सहयोग, वैभव, कौशल एवम् पुण्य परमार्थ अर्जित करता है। महत्वपूर्ण उपलब्धियों में मुखरता का मूर्धन्य स्थान है।
शिल्प, संगीत, कृषि, उद्योग, विद्या आदि विभिन्न कला-कौशल जन्मजात रूप से या अनायास किसी को भी उपलब्ध नहीं होते। उनका अभ्यास करना पड़ता है। ठीक इसी प्रकार भाषण, सम्भाषण का भी प्रयत्न एवं मनोयोगपूर्वक अभ्यास करना पड़ता है। इस प्रयोजन के लिए कथा-कहानियां कहने की पद्धति का आश्रय लेना सबसे सरल है। भाषण में अपने विषय का अध्ययन करना पड़ता है और बोलने में प्रवाह का तारतम्य बिठाने के लिए उसका क्रमबद्ध ढांचा बनाना पड़ता है। उदाहरण प्रमाण ढूंढ़कर उन्हें जहां के तहां फिट करना पड़ता है। किन्तु कथा शैली में सब कुछ पका-पकाया मिल जाता है। उसे व्यक्त भर करना पड़ता है। पूर्वापर संगतियां बिठाने की आवश्यकता नहीं पड़ती। फिर कहानियां रोचक भी होती हैं। उन्हें बाल-वृद्ध सभी रुचिपूर्वक सुनते हैं। मनोरंजन के साथ शिक्षण के समन्वय का सरल मार्ग इसके अतिरिक्त दूसरा है नहीं।
युगसंधि की वेला में व्यक्ति, परिवार और समाज के नव निर्माण की महती आवश्यकता है। इसके लिए जनमानस को परिष्कृत करने की अनिवार्य आवश्यकता है। चिन्तन और चरित्र में उत्कृष्टता का समावेश करने के लिए जिस लोकशिक्षण की आवश्यकता है। उसके लिए महामानवों के चरित्र का उदाहरण प्रस्तुत करने से सर्वसाधारण को यह समझाया जा सकता है कि आदर्शवादिता न तो कठिन है न घाटे की। उसे थोड़ा-सा साहस अपनाने वाले सहज ही जीवन में उतारते और उपलब्धियों से लाभान्वित होते हैं।
उपरोक्त सभी प्रयोजनों की एक साथ पूर्ति के लिए प्रज्ञा पुराण कथा को नितान्त सामयिक, सरल और अभीष्ट प्रतिफल उत्पन्न कर सकने में समर्थ समझा जा सकता है। उसमें देव संस्कृति का स्वरूप एवं गौरव समझने-समझाने का अवसर मिलता है। युग की समस्याओं का समाधान करने के लिए समय-समय पर तत्वदर्शी, मनीषियों ने परिस्थितियों के अनुरूप धर्मग्रन्थ रचे हैं। अपने सभ्य की आवश्यकताओं का जैसा निराकरण निर्धारण प्रज्ञा पुराण में हुआ है वैसा अन्यत्र कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं होता। इस आलोक को घर-घर, जन-जन तक पहुंचा कर हमें जन जागरण की आवश्यकता पूर्ण करने का पुण्य भी अर्जित करना चाहिए।
प्रज्ञा पुराण अभी एक खण्ड छपा है। अगले वर्ष उसके तीन खण्ड और छप जाने की आशा है। जो खण्ड सामने है उसमें दिये गये कथानकों को कई-कई बार मनोयोगपूर्वक पढ़ना चाहिए। एक-एक कथा कई-कई प्रयोजनों की पूर्ति करती हे। इसमें कई-कई प्रकार की शिक्षायें, प्रेरणायें, दिशाधारायें भरी होती हैं। अवसर के अनुसार उन कथाओं में से जिन्हें कहने की आवश्यकता हो उन्हें कहनी चाहिए। इतना ही नहीं, यह भी देखना चाहिए कि किस कथा से, किस स्तर के श्रोताओं को ध्यान में रखते हुए क्या प्रेरणा उभारनी चाहिए। जो रुचिपूर्वक इस गन्ध को पढ़ेंगे और ध्यानपूर्वक उन्हें खोजेंगे वे अपने काम आने वाली मणि मुक्तक बड़ी संख्या में सहज ही एकत्रित कर लेंगे। बालकों के लिए, वयस्कों के लिए, वृद्ध, असमर्थों के लिए सुधार प्रयोजनों के लिए, सत्प्रवृत्ति संवर्धन के लिए, प्रौढ़ों और प्रबुद्धों के लिए किस स्तर के उदाहरण एवं कथानक अभीष्ट हैं उन्हें स्थानीय परिस्थिति एवं आवश्यकता को देखते हुए उपयुक्त सामग्री पर्याप्त मात्रा में एकत्रित की जा सकती है और यथा अवसर श्रोताओं का स्तर एवं रुझान देखते हुए तदनुरूप शैली में सुनाई जा सकती है। विषयों को अलग से छांटना और समय के अनुरूप उन्हें प्रस्तुत कर सकना कुछ कठिन भी नहीं है। मनोयोग पूर्वक ढूंढ़-खोज करने से हर स्तर की सामग्री इस ग्रन्थ में से प्रचुर परिणाम में एकत्रित हो सकती है। किन्तु जिनके लिए वह कठिन पड़े वे प्रज्ञा पुराण को ज्यों का त्यों भी अपनी छोटी टिप्पणियों के साथ सरस शैली में कहते रह सकते हैं। उनका लाभ भी कम नहीं है।
प्रवचन, भाषण भी एक कला-कौशल है। जो अभ्यासपूर्वक कुछ ही दिनों में भली प्रकार सीखा जा सकता है। इसमें सबसे बड़ी कठिनाई है—अभ्यास न होने की झिझक, बहुत से लोगों के सामने ठीक तरह न कह पाने का डर असमंजस। उसे निकाला जा सके और जिस प्रकार काम की बातें रोजमर्रा थोड़े या बहुत लोगों के सामने कही जाती रहती हैं उसी प्रकार बिना झिझक संकोच के अपनी बात मंच से बोलने का अभ्यास कर लिया जाय तो समझना चाहिए तीन चौथाई समस्या का हल हो गया। सभी की जीभें एक ही प्रकार के पदार्थों से बनी हैं, फिर कोई भाषण, संभाषण धारा प्रवाह पूर्वक करे कोई झिझकता, सकुचाता, कुछ कह ही न सके, और घबराने लगे। इस व्यथा-असफलता का एक ही कारण है—आत्मीयता, असमंजस, असफलता की आशंका। यदि इस दुर्बलता को आत्म विश्वास जगाकर छोड़ा, खदेड़ा जा सके तो समझना चाहिए वक्ता बनने के मार्ग की सबसे बड़ी चट्टान हट गई।
आरंभिक अभ्यास के दो उपाय हैं। एक यह कि अकेले में, बन्द कमरे या जंगल में जाकर निधड़क होकर कथा कहना या प्रवचन करना आरंभ किया जाय। कमरे में बिखरे सामान को, जंगल में उगे पेड़-पौधों को जनता मानकर उसके सामने बिना किसी डर झिझक के ऊंचे स्वर में भाषण आरम्भ कर दिया जाय। विचार प्रवाह न बने तो कोई पृष्ठ पढ़कर भी सुनाए जा सकते हैं। इसका उपाय है कि अपने से छोटों के—बालकों के सामने कथा कहना आरम्भ किया जाय। ‘नानी की कहानी’ वाली उक्ति प्रसिद्ध है। पिछले दिनों ‘नानियां’ प्रायः अशिक्षित ही होती थीं फिर भी वे ढेरों कहानियां याद ही नहीं रखती थीं वरन् आकर्षक शैली में घंटों सुनाती भी रहती थीं। सभी उन्हें रुचिपूर्वक सुनते रहते थे। यह प्रयोग प्रज्ञा पुराण का अवलम्बन लेकर किया जाय तो उसमें कठिनाई पड़ने जैसी आशंका करने का कोई कारण नहीं।
प्रज्ञा पुराण में हर स्तर का मार्गदर्शन करने योग्य सामग्री भरी पड़ी है। उसे हर वर्ग में सफलतापूर्वक कहा जा सकता है। फिर भी अच्छा यह है कि अभ्यास अपने घर से आरम्भ किया जाय और उसे बाल कथा के रूप में बिना किसी आडम्बर या अड़चन के आरम्भ कर दिया जाय। कथा शैली में रोचकता एवं प्रवाह अवश्य होना चाहिए। कर्कश, अस्त-व्यस्त, अनगढ़ ढंग से कहने पर अच्छे प्रतिपादन भी लड़खड़ाने लगते हैं और बेतुके प्रतीत होते हैं। घर में इन कथाओं को रात्रि में अवकाश के समय कहने का ढर्रा चल पड़े तो जहां अपना अभ्यास बढ़ेगा वहां मनोरंजन का उपक्रम, व्यक्तित्व को निखारने वाले मार्गदर्शन का भी दूरगामी सत्परिणाम उत्पन्न करने वाला समावेश रहेगा।
साधारणतया प्रज्ञा पुराण सामूहिक लोक शिक्षण की दृष्टि से लिखा गया है। पारिवारिक शिक्षण, लघु गोष्ठियों तथा झिझक खोलने के अभ्यास प्रयोग भी इससे किये जा सकते हैं। किन्तु इसका बड़ा उपयोग तब है जब अधिक लोगों की, लम्बी अवधि तक इस आधार पर मानवी गरिमा के अनुरूप ढालने का उपक्रम जारी रखा जा सके। उपयुक्त वातावरण बनाने के लिए मंच की सात्विक किन्तु श्रद्धा उत्पन्न करने वाली सज्जा आवश्यक है। भागवत कथा, रामायण कथा, सत्यनारायण कथा आदि में मंच की सज्जा, आरंभिक पूजा, अर्चा, आरती, मंगलाचरण आदि का समावेश रहने से धर्म श्रद्धा का उद्भव होता है और कथन, प्रतिपादन का महत्व कहीं अधिक बढ़ जाता है। इस प्रक्रिया का समावेश करने का जहां जैसा अवसर हो उसे हाथ से नहीं जाने देना चाहिए। इन दिनों लोकवादी प्रवचनों में लोकरुचि नहीं। हमें प्रयत्नपूर्वक जन सम्पर्क साधना व्यक्तिगत सम्पर्क बनाकर उत्साह उत्पन्न करने का प्रयत्न करना चाहिए। ताकि उस प्रयास परिश्रम का लाभ अधिक लोग, अधिक परिणाम में उपलब्ध कर सकें।
प्रज्ञा पुराण कथा के साथ कीर्तन का समावेश भी प्रारम्भ और अन्त में थोड़ा-थोड़ा रहना चाहिए। कथावाचक का स्वर मधुर हो तो वह भी करा सकता है अन्यथा किन्हीं मधुर कंठों की सहायता से प्रेरणाप्रद सहगानों का सिलसिला चलाया जा सकता है। वाद्य यंत्र साथ रहे तो और भी अच्छा।
कथा शैली और भाषण शैली का मौलिक अन्तर समझ लेना चाहिए। भाषणों में जोश, आवेश, आक्रोश व्यक्त करने वाले ऊंचे स्वर का भी प्रयोग हो सकता है, किन्तु कथा धर्ममंच से होती है इसलिए उसमें सौम्य, शान्त रस ही काम देता है। स्वर मध्यम, नपा-तुला, प्रवाह युक्त रहना चाहिए। करुणा, स्नेह, सौजन्य, संयम, सेवा, सद्भाव जैसे भावों का प्रवाह कथा शैली में अधिक फिट बैठता है। महत्वपूर्ण अवसरों पर पीड़ित पक्ष के प्रति करुणा जगाकर अनीति के प्रति आक्रोश की प्रतिक्रिया उत्पन्न की जा सकती है। कड़ककर झल्लाकर बोलने की गुंजाइश कथा में है नहीं। उसमें सहज सरलता एवम् सरसता रहनी चाहिए। तभी कथा शैली फबती है। उदाहरणों, घटनाओं का बहुत ही सार, संक्षेप प्रज्ञा पुराण में लिखा गया है। इन पर रंग चढ़ाना, विस्तृत करना, वक्ता की अपनी सूझ-बूझ पर निर्भर है। सोने की डली बाजार से खरीदी जा सकती है। उससे विभिन्न आकृतियों वाले आभूषण गढ़ना, मीनाकारी करना, मोती गूंथना स्वर्णकार के हाथ है। प्रज्ञा पुराण को सोने की डली भर समझा जाय। उसे ज्यों का त्यों सुनाने का पाठ करने का पुण्य लाभ लेने की अपेक्षा प्रसंगों को सरस, आकर्षक, प्रेरणाप्रद बनाने की बात वक्ता की अपनी सूझ-बूझ पर निर्भर है।
समस्त कथा आद्योपान्त कहने में तो महीनों का समय चाहिए। अपने को कितना समय मिला है, किस स्तर के लोग हैं, माहौल कैसा बना है, उसे देखते हुए प्रज्ञा पुराण के, कहीं से भी प्रसंग चुन लेने चाहिए और उन बिखरे प्रसंगों को एकत्रित करके एक प्रवचन बना लेना चाहिए। यही बात श्लोकों के सम्बन्ध में भी है। डेढ़-दो घंटे की गोष्ठी में 10-20 श्लोक कह देना पर्याप्त है। सारे श्लोकों को, सभी के अर्थों को सुनाने की आवश्यकता नहीं है। वे तो प्रज्ञा उपनिषद् के रूप में लिखे गये हैं। मनन के लिए तत्वदर्शन के रूप में में उनका स्वाध्याय हो सकता है, साथ ही विज्ञ जनों की उपस्थिति में उनका विवेचन सत्संग चल सकता है। पुराण कथा में तो अधिक महत्व के श्लोक ही कहे जाते हैं उन पर निशान लगा रखा जाय और बार-बार दुहरा कर गले में बिठा लिया जाय तो कथा के बीच-बीच श्लोक कहने की बात उतने भर से बन जाती है।