
तृतीय अध्याय— प्रज्ञा परिवार का पुनर्गठन
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
पिछली पंक्तियों में प्रज्ञा परिजनों में अत्यन्त व्यस्त लोगों के लिए भी सप्तसूत्री कार्यक्रम दिया गया है और आशा की गई है इन सरलता से अपनाये जा सकने किन्तु परिणाम में असीम सम्भावनाओं वाले कार्यक्रमों को हर घर में स्थान मिलेगा पर यह भुलाया न जाये कि वह कार्यक्रम नितान्त वैयक्तिक है। इन कार्यक्रमों से व्यक्तित्व का परिष्कार तो सुनिश्चित है पर सम्पूर्ण विश्व को जिस प्रज्ञा युग में उतारने की बात की जा रही है वह उतने मात्र से सम्भव नहीं हो पायेगा। उसके लिए प्रज्ञा परिवार के प्रत्येक परिजन को उसकी अपनी स्थिति के अनुरूप एक कदम आगे बढ़ाकर योगदान देने की बात कही जा रही है।
प्रज्ञा परिवार को तीन स्तर के कार्यक्रम सौंपे गये हैं और उन्हें तीन वर्णों में विभक्त किया गया है। इनमें एक को ‘‘मनीषी’’ दूसरे को ‘‘सृजेता’’ तीसरे को ‘‘उदीयमान’’ कहा गया है। इनमें से प्रत्येक के तीन-तीन उपवर्ग हैं।
(1) मनीषा के
(अ) शोधकर्ता साहित्यिक
(ब) युग प्रवक्ता
(स) युग गायक कलाकार तीन उपवर्ग हैं।
(2) सृजेता भी तीन वर्गों में बांटे गये हैं।
(अ) युग शिल्पी प्रज्ञा पुत्र
(ब) उपाध्याय-अध्यापक
(स) जागरूक मार्गदर्शक।
(3) उदीयमान वर्ग की भी तीन उपजातियां हैं।
(अ) जागृत महिला-सरस्वती
(ब) किशोर भविष्य नायक
(स) जागृत आत्मायें युग प्रहरी।
प्राचीन काल में भी वस्तुतः तीन वरण ही थे। ब्रह्मचारी, गृहस्थ और वानप्रस्थ। संन्यास वानप्रस्थ की ही एक विशिष्ट शाखा है। जरा जीर्ण होने पर कुटी में आश्रमों के संचालक बन जाने पर वानप्रस्थ ही संन्यासी होते थे। जब तक शरीर में पराक्रम रहता था तब तक वे प्रव्रज्या के लिये तीर्थ यात्रा के लिए निरन्तर परिभ्रमण ही करते रहते थे। उसी आधार पर प्रज्ञा परिवार के भी (1) मनीषी (2) सृजेता (3) उदीयमान वर्ग बना दिये गये हैं। वर्ग और वर्ण एक ही बात है। अन्तर मात्र पुरातन और अर्वाचनीय भाषा प्रयोग मात्र का है।
तीन वर्गों में बहुत घिच-पिच और व्यवस्था में असुविधा होने के कारण नौ वर्गों का विभाजन ही सुविधा जनक दिखा है इसलिए देव परिवार की सभी जागृत आत्माओं को नौ सांसदों के अन्तर्गत संगठित किया गया है। एक समान कार्य पद्धति एवं दिशा धारा एक रहने से एक जैसे प्रयास करने में परस्पर विचार विनिमय, आदान-प्रदान, सहकार एवं कार्यान्वयन में अधिक सुविधा रहेगी। एक दूसरे के अनुभव से लाभ उठाते और मिल-जुलकर काम करते हुये अधिक द्रुत गति से अधिक सफलता पूर्वक आगे बढ़ने में सफल होंगे।
संगठन की दृष्टि से उपरोक्त नौ विभाजनों की नौ संसदें बनाई जा रही हैं उनके नाम इस प्रकार निर्धारित किये जा रहे हैं:—
(1) शोध संसद
(2) युग प्रवक्ता संसद
(3) युग गायक संसद
(4) युग शिल्पी संसद
(5) उपाध्याय संसद
(6) सम्पर्क संसद
(7) सरस्वती संसद
(8) भविष्य निर्माता संसद
(9) युग प्रहरी संसद।
इन सभी के लिए निर्धारित दिशाधारा, कार्य पद्धति यहां प्रस्तुत की जा रही है। सभी परिजन अपने लिये इनमें से एक प्रमुख रूप से अपनायें, उसे प्राथमिक दें और शेष संसदों में अपना यथा सम्भव योगदान देते रहें। ऐसा कोई भी बन्धन नहीं रखा गया है कि जो जिस संसद का सदस्य है वह उसी परिधि में सीमित रहेगा। एक साथ कई-कई क्षेत्रों में भी काम करते रहा जा सकता है। एक ही व्यक्ति, पहलवान, चिकित्सक, गायक, वक्ता आदि हो सकता है। तो फिर संसद सदस्यों में भी दूसरे पक्षों में भाग लेने उन्हें आगे बढ़ाने में क्या और क्यों प्रतिबन्ध हो सकता है।
यह सभी संसदें अपने-अपने स्थान पर बहुत महत्वपूर्ण हैं हर एक की अपनी विशिष्ट उपयोगिता है अतएव जो जिस वर्ग में आता है उसे अपने वर्ग के दायित्व पढ़ने समझने और क्रियान्वित करने का इन पंक्तियों में भावभरा अनुरोध किया जा रहा है। यदि प्रज्ञा परिजनों ने इन उत्तरदायित्वों का निष्ठापूर्वक निर्वाह किया तो प्रज्ञावतरण की कल्पना कुछ ही समय में साकार होती देखी जा सकेगी।
संसद शब्द विवादास्पद तो नहीं विशेष कर उस स्थिति में जब कि विभिन्न संसदों के परिजन अपने आप को संसद सदस्य लिखने लगें इस आशंका के कारण संसद शब्द को बदलकर संगम किया गया। कहीं कहीं संगम छपा भी है पीछे यह धारणा निर्मूल निकली इसलिए विभिन्न वर्गों को संसद कहने में कोई आपत्ति नहीं पर किसी भी वर्ग के परिजन अपने आपको न तो ‘‘संसद सदस्य’’ लिखें न ही ‘‘सांसद’’, ऐसा करना आपत्ति जनक होगा।