
युग-संगीत उभरे और व्यापक बने
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लोक मानस को भाव तरंगित करने में संगीत की शक्ति, उपयोगिता एवं आवश्यकता को स्वीकारना ही पड़ेगा। यह दूसरी बात है कि उसका उपयोग कुत्सा भड़काने में किया जाता है अथवा श्रेष्ठता की पक्षधर सद्भावनाओं को उभारने में उसका प्रयोग होता है। समय आ गया है कि शक्तिशाली साधनों को नवसृजन के लिए प्रयुक्त किया जाय। साहित्य के साथ-साथ संगीत और कला को भी सद्भाव संवर्धन में अपनी क्षमता इच्छा या अनिच्छा से नियोजित करना पड़ेगा। महाकाल का यह निर्धारण इन्हीं दिनों कार्यान्वित भी हो रहा है। प्रज्ञा अभियान के अन्तर्गत संगीत को लोकरंजन के साथ लोक मंगल के संयुक्त कदम मिलाकर सही-सही प्रगति पथ पर सही दिशा में चलने के लिए बाधित किया जा रहा है।
शिव का डमरू, नारद की वीणा, कृष्ण की वंशी, मीरा का मंजीरा, सूरदास का इकतारा, चैतन्य की करताल के संयुक्त समन्वय का अभिनव अवतरण इन्हीं दिनों युग संगीत के रूप में हुआ है। इसमें उन्हीं गायनों को मान्यता मिली है जो उत्कृष्ट चिन्तन और आदर्श कर्तृत्व का पक्ष समर्थन कर सकें। इस प्रयोजन के लिए नये गीत और पुरातन कथानकों को इस प्रकार लिखाया जा रहा है कि उनसे सामयिक समस्याओं के समाधान में समुचित योगदान मिल सके। यह गीत खड़ी बोली हिन्दी में लिखाये जा रहे हैं साथ ही यह प्रयत्न भी चल रहा है कि उनका अनुवाद देश की अन्यान्य भाषाओं तथा ग्रामीण क्षेत्र की बोलियों में वहां प्रचलित लोकगीतों में कराया जाय ताकि युग चिन्तन को गीतों के माध्यम से घर घर अलख जगाने के लिए प्रयुक्त किया जा सके। इसके लिए कुछेक ही छन्द—मीटर निर्धारित किए गये हैं। ताकि अनेकानेक मीटरों और ध्वनियों के जंजाल में कवियों, गायकों, वादकों को अवांछनीय भटकाव का शिकार न होना पड़े। शक्ति का अनुपयुक्त अपव्यय हो। ऐसे कवियों को विशेष रूप से तलाश किया जा रहा है जो लोकभाषा में प्रगतिशीलता का समावेश कर सकने में समर्थ हो सकें। खड़ी बोली में प्रान्तीय तथा क्षेत्रीय भाषा में गीत अनुवाद कर सकने की क्षमता भी इस प्रयोजन में मौलिक गीत रचना के समान ही आवश्यक एवं महत्वपूर्ण है।
वाद्य यन्त्रों में उन्हें मान्यता दी गई है जो सीखने में तथा बजाने में सरल हैं। हारमोनियम, ढोलक, तबला, मंजीरा, घुंघरू इन्हीं का इन दिनों सर्वत्र प्रचलन है। युग निर्माण सम्मेलनों में, प्रज्ञा आयोजनों में आमतौर से इन्हीं को प्रयोग में लाया जाता है। जहां सुविधा है वहां उस प्रचलन को भी जारी रखा जायेगा पर आवश्यकता घर-घर अलख जगाने और जन-जन तक युग चेतना पहुंचाने की है। इस प्रयोजन में भाषण-संभाषण की अपेक्षा संगीत कहीं अधिक सफल होता है। संतकाल के सभी धर्मप्रचारकों ने इसी पद्धति को अपनाया था। सूर, कबीर, दादू, रैदास, नानक, नामदेव, चैतन्य आदि की कविताएं मात्र लिखी ही नहीं गई हैं वरन् गाई बजाई भी गई हैं। महाराष्ट्र में ऐसे धर्म संगीतों का, पोवाड़ों का, खूब प्रचलन रहा है। दासबोध के अभंग उस क्षेत्र में बड़ी भावना से गाए जाते हैं। मध्य भारत में रामायण की चौपाइयां मनोयोगपूर्वक गाई जाती हैं। मीरा के भजन भावनापूर्वक गाये जाते हैं। उनकी प्रचार पद्धति में गीत-वाद्य का जो स्तर रहा है उसे साहित्य परम्परा के अनुसार दोषपूर्ण भी कहा जा सकता है। फिर भी उद्देश्य की महानता को मान्यता देने वाले भावनाशीलों ने उनका पूरा-पूरा सम्मान किया और श्रद्धा-पूर्वक अपनाया है। जन जागरण के लिए अपनाई गई उसी संत परिपाटी को प्रज्ञा अभियान के अन्तर्गत अपनाया गया है।
वाद्ययन्त्रों में ढपली और मजीरा इन दो ताल वाद्यों को प्रयोग में लिया जा रहा है। यह दोनों ही ऐसे हैं जिन्हें झोले में रखकर कहीं भी साथ ले जाया जा सकता है रास्ता चलते कहीं भी बैठकर अकेले या दो व्यक्तियों की टोली में मिलजुलकर गाया-बजाया जा सकता है। रेल में, बस में, पार्क में, घाट पर, मन्दिरों में, कारखानों, दफ्तरों, सिनेमाघरों के आगे जहां भी थोड़े बहुत आदमी बैठे या चलते फिरते दिखाई पड़ें ‘‘अपनी ढपली अपना राग’’ बिना किसी पूर्ण तैयारी के आरम्भ किया जा सकता है। ढपली में ही घुंघरू, मजीरा भी जुड़े रह सकते हैं और दो वाद्य यन्त्रों को साथ-साथ बजाने का प्रयोजन एक ही गायक पूरा करता रह सकता है किन्तु उत्साहवर्धक बात तब बनती है जब दो की टोली ही मिल जुलकर गाये बजाये।
सत्तर प्रतिशत देहातों में बसे हुए सत्तर प्रतिशत अशिक्षित भारत को नैतिक, बौद्धिक और सामयिक अवांछनीयताओं से छुड़ाने और युग मानवों की गरिमा अपना सकने योग्य बनाने के लिए जिस विचार क्रान्ति की आवश्यकता है उसे उभारने में युग संगीत की अति महत्वपूर्ण भूमिका होगी। युग धर्म के अनुरूप गलाई-ढलाई की भूमिका बनाने वाले भाषण करना और समझना दोनों ही कठिन है। उनके लिए वक्ता को अध्ययनशील, प्राणवान् शैली का अभ्यस्त होना चाहिए साथ ही सुनने वालों की बौद्धिक पृष्ठभूमि भी उसे समझ सकने योग्य होनी चाहिए। इसके बिना उस सुयोग में न तो रस आता है और न कुछ प्रतिफल निकलता है। इस कठिनाई को ध्यान में रखते हुए भी वक्तृता में कथा-शैली का समावेश करके प्रज्ञा पुराण प्रक्रिया को प्रश्रय दिया गया है। मुट्ठी भर शहरी सुशिक्षितों का कार्यक्षेत्र दूसरों के लिए छोड़कर प्रज्ञा अभियान ने अपने प्रयास पिछड़े लोगों को ध्यान में रखकर बनाये और बढ़ाये हैं तो स्वाभाविक था कि भाषण-शैली की कथा प्रज्ञा पुराण प्रक्रिया का समावेश करके युगान्तरीय चेतना को सार्वजनिक बनाने का चिर पुरातन किन्तु चिरनवीन प्रयास अपनाया जाय। ठीक यही बात युग संगीत के सम्बन्ध में भी है। उसे शास्त्रीय संगीत के गायन मंडली के, आर्केस्ट्रा के, जटिल-जंजाल के अलग निकालकर ‘‘स्ट्रीट सिंगर’’ का स्तर बनाया गया है। युग गायकों की सद्भावनाओं सत्प्रवृत्तियों को गायन के माध्यम से उछालना है तो संगीत को ऐसा स्वरूप देना होगा जो सामान्य व्यक्तियों द्वारा सामान्य साधनों से कार्यान्वित किया जा सके। बड़े लोगों का बड़ा संगीत अपनी जगह कायम रहे। मुट्ठीभर लोग उसका आनन्द उठाने के लिए महंगे साधन जुटाते रहें। इसमें किसी को क्या आपत्ति हो सकती है। इस सफेद हाथी को युग क्रान्ति के लिए प्रयुक्त कर सकना सम्भव नहीं।
प्रज्ञा युग के संदेशवाहकों को उपरोक्त छोटी किन्तु महती भूमिका निभाने की तैयारी करनी होगी। उन्हें ‘सड़क गायन’ की भूमिका निभाने के लिए उसी स्तर की सरल शिक्षा प्राप्त करनी होगी।
गायक यों अकेला भी काम कर सकता है पर वादन के साथ उसकी शक्ति और भी कई गुनी बढ़ जाती है। एक और एक मिलकर ग्यारह बनने की युक्ति दो गायकों वादकों की जोड़ी मिल जाने पर और भी अच्छी तरह निभने लगती है। ढपली, मंजीरा का वादन इस प्रयोजन के लिए अपने आप में पूर्ण है। मंजीरे के इन दिनों और भी कई स्वरूप निकले हैं। घुंघरू, तिकोना, चिमटा, आदि भी उसके सहयोगी—स्थानापन्न बन सकते हैं। महाराष्ट्र के प्रसिद्ध सन्त तुकड़ोजी इन वाद्य यन्त्रों के सहारे युग गायनों को आकर्षण एवं प्रभावी बनाने का सफल प्रयोग भी कर चुके हैं। इस पद्धति को इन दिनों अपनाया जा रहा है। अनुभव और अभ्यास से इसमें क्रमशः अधिक सुधार एवं आकर्षण भी उत्पन्न किया जाता रहेगा।
छोटे बड़े प्रज्ञा आयोजनों की अगले दिनों धूम रहेगी। लोकमानस को प्रखर एवं परिष्कृत करने के लिए इसके अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं। अस्तु उनमें जहां अभीष्ट प्रयोजनों की पूर्ति के लिए विचारों की अभिव्यक्ति आवश्यक होगी वहां साथ में युग संगीत भी आवश्यक होगा। कथा कीर्तन का जोड़ा है। जन्मदिवसोत्सव, पर्व संस्कारों के माध्यम से आये दिन ज्ञान-गोष्ठियां होती रहती हैं। अब प्रज्ञा आयोजनों की अधिक विस्तृत योजना क्षेत्रीय सम्मेलनों के रूप में विकसित हुई है तो उनमें भाषण का सहयोगी गायन भी उतना ही आवश्यक एवं महत्वपूर्ण होगा। इनमें हारमोनियम तबला वाले चिरकाल से अभ्यस्त बन जाने वाले गायकों की मंडली जुटाना है तो अच्छा पर साथ ही वह ‘बिल्ली का दूध’ जुटाने की तरह है, अन्ततः दुर्लभ और कष्टसाध्य। उस आवश्यकता की पूर्ति युग गायकों को थोड़ा शिक्षण देकर थोड़े समय में तैयार कर देने पर भी सामयिक आवश्यकता की पूर्ति सम्भव हो सकेगी। इसी अभाव की पूर्ति शान्तिकुंज में सुगम संगीत की अभिनव व्यवस्था पूरी की जा रही है। ऐसे ही संगीत विद्यालय अब हर प्रज्ञा संस्थान में, हर गांव मुहल्ले में चलाने होंगे। जिनमें सीखने वाले अपना अभ्यास सुनने वालों का उपयोगी मनोरंजन साथ-साथ चलाते रह सकें।
इस शिक्षा में वादन उतना महत्वपूर्ण नहीं जितना कि गले को साधना। ऊंची आवाज और बंधे स्वर में बड़ी संख्या में उपस्थित लोगों को खड़े होकर प्रभावित करना। ढपली-मंजीरे का वादन अति सरल है उसे तनिक सा ताल ज्ञान होने पर कोई भी सीख सकता है। महत्व गला साधने और आवाज उभारने का है। शिक्षार्थियों और अध्यापकों को इसी तथ्य पर अपना ध्यान एकत्रित करना चाहिए साथ ही एक और बात भी ध्यान में रखनी चाहिए कि गायन के साथ वादन ही नहीं अभिनय भी अनिवार्य रूप से आवश्यक है। इस तीसरे तथ्य की अपेक्षा कर देने पर मात्र गायन निष्प्राण हो जाता है। मात्र मशीन जैसी आवाज मुंह से निकले और गायक भावशून्य होकर जड़ प्रतिमा बना बैठा रहे तो समझना चाहिए शरीर वस्त्र यथावत् रहने पर भी उसमें से प्राण निकल गया।
अभिनय का तात्पर्य है गायक का अपने आप में, अपने प्रतिपादन में भाव विभोर हो जाना उस आवेश को अंग संचालन की मुद्राओं द्वारा व्यक्त करना। नृत्य में यही होता है। ‘एक्शन सांग’ पद्धति यही है। जिसमें गायक के प्राण उछलते हैं। हर गायक को इसका अभ्यास करना चाहिए। सुनने वालों को, दर्शकों को, यह अनुभव करना चाहिए कि उसका व्यक्तित्व रस विभोर होकर उस प्रक्रिया में तन्मय हुआ जा रहा है। इसके लिए गरदन, कन्धा, हाथ, ओंठ, आंखें भी गले की तरह ही अपनी भाव विभोरता प्रकट करने लगती हैं। प्रभावी गायकों को इस अभिव्यक्ति मुद्रा को अपनाते हुए कहीं भी देखा और अनुकरण अभ्यास किया जा सकता है।
अगले दिनों साइकिल यात्रा, पद यात्रा, तीर्थयात्रा की टोलियां युग चेतना का प्रसार विस्तार करने के लिए प्रव्रज्या पर निकलेंगी। उन्हें युग संगीत का उपयोग एक प्रकार से अनिवार्य ही होगा अस्तु, उस अभ्यास में हर युग शिल्पी को रस लेना और अभ्यास करना चाहिए।