
भविष्य निर्माता संसद— युवा पराक्रम नव सृजन की दिशाधारा अपनाये
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उठती उम्र अपने साथ शोभा सौन्दर्य, आशा, उमंग, जोश उत्साह ही लेकर नहीं आती मनुष्य के भाग्य और भविष्य का निर्माण भी इन्हीं दिनों होता है। गीली मिट्टी से ही बर्तन खिलौने बनते हैं। लकड़ी को झुकाने, मोड़ने की स्थिति उसके गीले रहने तक ही बनती है। सूखी मिट्टी, पकी लकड़ी तो जैसी की तैसी ही बनी रहती है। किशोरावस्था और नव यौवन के दिन ही ऐसे हैं जिनमें व्यक्तित्व उभरता—ढलता भी है। कुसंग से इन्हीं दिनों बर्बादी होती है। सुसंग, से इन्हीं दिनों व्यक्ति श्रेष्ठ समुन्नत और सुसंस्कारी बनते हैं। लड़के हों या लड़कियां, इन दिनों विशेष संरक्षण, मार्गदर्शन की अपेक्षा रखते हैं। अनुशासन परिपालन के लिए भी उन्हें उन्हीं दिनों विशेष रूप से सहमत करना पड़ता है। उपेक्षा अभिभावकों की और से बरती जाय या किशोर युवकों की ओर से उसकी परिणति उच्छृंखलता के रूप में ही होता है। यही है व्यक्तित्व को अस्त-व्यस्त करके रख देने वाली और भविष्य को अन्धकारमय बनाने वाली विभीषिका, जिसकी ओर से समय रहते सतर्कता न बरती गयी तो फिर जीवन भर के लिए पश्चाताप की हाथ रह जाता है।
उठती आयु में शालीनता की दिशा में अग्रसर करने के लिए स्कूली शिक्षा तो इसलिए प्रमुख है कि उसके बिना व्यावहारिक ज्ञान और आजीविका उपार्जन का सुयोग ही नहीं बनता। इस अनिवार्यता को शिरोधार्य तो करना ही चाहिए। पर इतने तक ही सीमित नहीं रह जाना चाहिए।
व्यायाम, स्वावलम्बन, कला कौशल और स्वाध्याय यह चार प्रयास और भी साथ-साथ चलने चाहिए। ब्रह्मचर्य पालन में भी ढील पड़ने से काया खोखली हो जाती है। आत्महीनता घेर लेती है और स्मरण शक्ति जवाब देने लगती है। अचिन्तय-चिन्तन और कुसंग से यह छूत की बीमारी लगती है। इससे बचने के सुनिश्चित उपायों में—व्यायाम में, खेल कूद में, ड्रिल, कवायद में रुचि लेनी चाहिए। इससे प्रगतिशील साथियों का सहचरत्व प्राप्त होता है और स्वास्थ्य सम्पदा का भंडार समय रहते संचित कर लेने का अवसर मिलता है। व्यायामशाला में, खेल मंडली से सम्बन्ध सूत्र जोड़ना चाहिए। इस प्रयास में लाठी चलाना भी संयुक्त रखने से आत्मविश्वास और शौर्य साहस बढ़ने का, स्वास्थ्य संरक्षण के अतिरिक्त दुहरा तिहरा लाभ मिलता है। इस प्रकार के अभियान के साथी तलाश करके एक छोटी सी मंडली स्वयं भी बनाई जा सकती है। व्यायाम की ओर जिनका ध्यान पहुंचेगा वे ब्रह्मचर्य का महत्व समझने और उसकी मर्यादा पालने के लिए कटिबद्ध रहेंगे। जीवन भर काम आने वाले स्वास्थ्य सम्पदा का भंडार तो जमा कर ही लेंगे।
एक बात हर युवक को ध्यान में रखनी चाहिए कि अच्छी नौकरियां मिलना दिन-दिन कठिन होता जा रहा है। अगले दिनों तो इस आशा के सपने देखने वालों में से अधिकांश को निराश ही रहना पड़ेगा। इसलिए शिक्षा के साथ-साथ स्वावलम्बन की बात भी सोचनी चाहिए। कृषि, पशु-पालन, उद्योग व्यवसाय की कोई पारिवारिक परम्परा हो तो उस ओर ध्यान देना चाहिए और घर के बड़ों का हाथ बंटा कर धीरे-धीरे प्रवीणता संचित करनी चाहिए। नये उद्योग तभी ढूंढ़ने चाहिए तक पुराना उद्योग न हो या खर्च निकलने जैसा न हो। गृह उद्योगों में अनेकों ऐसे हैं जो हर जगह, हर समय काम दे सकते हैं। लुहारी, बढ़ईगीरी, दर्जीगीरी, का अब मशीनों के आधार पर बड़ा और अधिक आजीविका वाला स्वरूप भी विकसित हो गया है। स्थानीय प्रचलन को देखते हुए अन्यान्य छोटे बड़े उद्योग भी तलाश किये जा सकते हैं। यह बात गांठ बांध कर रखनी चाहिए कि नौकरी मिलने में अवरोध उत्पन्न होने पर बिना किसी असमंजस के निर्वाह का आधार तत्काल पकड़ा जा सके ऐसी पूर्व तैयारी रखी ही जानी चाहिए। इसके लिए अध्ययन काल में ही अवकाश के समय इस प्रकार के अभ्यास जारी रखने चाहिए जो स्वावलम्बन का आधार बन सकें।
स्वास्थ्य, स्वावलम्बन की तरह है। भावना बुद्धिमत्ता और प्रतिभा की भी जीवन विकास में आवश्यकता पड़ती है। उदासी, निराशा, जिसे घेरे रहेगी वह थका मांदा पिछड़ा और उदास, उपेक्षित रह कर मौत के दिन पूरे करेगा। इससे बचने का एक उपाय है—स्वाध्यायशील होना, दूसरा उपाय है कला कौशल में रस लेना। सम्पर्क क्षेत्र बढ़ाना, यशस्वी होना और अग्रिम पंक्ति में खड़े हो सकने की प्रवीणता अर्जित करना, इन दोनों ही प्रयोजनों को समान महत्व देना चाहिए और उन्हें अपनाने का अवसर नहीं चूकना चाहिए।
प्रज्ञा साहित्य से बढ़कर इन दिनों सरलता पूर्वक उपलब्ध करना और रुचिपूर्वक हृदयंगम करने योग्य स्वाध्याय सामग्री अन्यत्र मिलना कठिन है। इसे अपने पास पड़ोस में मांग जांच कर नियमित रूप से पढ़ते रहने का प्रयास करना चाहिए और सफलता पाकर ही चैन लेना चाहिए। यह एक प्रत्यक्ष सचाई है कि इस साहित्य से बढ़कर युवा वर्ग का सच्चा साथी, सहायक और मार्गदर्शक कदाचित ही और कोई मिल सके। अध्यापकों, अभिभावकों का कर्तव्य है कि वे अपने बालकों छात्रों के लिए यह सुविधा किसी न किसी प्रकार उत्पन्न कर ही दें कि वे नियमित रूप से प्रज्ञा साहित्य पढ़ें और चिन्तन में उत्कृष्टता का एवं चरित्र में आदर्शवादिता का समावेश करते हुए उज्ज्वल भविष्य का निर्धारण कर सकने में समर्थ, सफल हो सकें।
कला कौशल में भाषण, संभाषण, गायन, वादन के अभ्यास को अधिक महत्व दिया और प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। इस शिक्षा को सुलभ बनाने के लिए अध्यापक, अभिभावक भी प्रयत्नशील रहें और किशोर ऐसा सुयोग स्वयं भी बिठायें जिससे ऐसी मंडली में सम्मिलित होने और मिल जुलकर आगे बढ़ने का सुयोग बैठ सके। प्रतिभा निखारने की दृष्टि से इस स्तर की कुशलता को सर्वथा सराहा जाता है। गायन वादन सिखाने वाले संगीत विद्यालय छोटे बड़े रूप में जहां कहीं चलते हैं। न चलते हों तो कुछ साथी ढूंढ़ कर किसी मार्गदर्शक की सहायता से स्वयं भी कुछ प्रबन्ध किया जा सकता है। नव सृजन अभियान में इस प्रवीणता की सर्वत्र आवश्यकता पड़ती है। आये दिन होने वाले समारोहों में कविता पाठ युग संगीत की मांग रहती है। उसकी पूर्ति में लोक सेवा का अवसर तो मिलता ही है। अपनी प्रतिभा भी कम नहीं चमकती। सराहना और प्रतिष्ठा से आदमी का हौंसला बढ़ता है, प्रतिभा में निखार आता है और व्यक्तित्व उभरता है। स्वयं के अन्तराल में वितरण और भाव संवेदना के बीजांकुर पनपते हैं। ऐसे लोग रस सिक्त रहते और साथियों को भाव विभोर बनाये रहते हैं। जिन्हें इस उपलब्धि का सुयोग मिल सके उन्हें उसे हाथ से जाने नहीं देना चाहिए।
युवा मंडल सामूहिक श्रम दान से लोक सेवा के अनेकों सृजनात्मक कार्य हाथ में ले सकता है और जोश-खरोश के साथ उन्हें आगे बढ़ा सकता है। घर-घर में हरीतिमा की स्थापना एक अति सरल किन्तु बड़ा महत्वपूर्ण कार्य है। आंगनों में तुलसी के बिरवे लगाने चाहिए। यह प्रकारान्तर से खुले देवमन्दिर की स्थापना है। प्रतिमा पूजन का यह बहुत ही उपयुक्त और अनेकानेक लाभों से भरा पूरा उपासनात्मक धर्म कृत्य है। सूर्य को अर्घ्य चढ़ाने, प्रातः अगरबत्ती शाम को दीपक जलाने, परिक्रमा करने भर से छोटी पूजा उपासना बन पड़ती है। वातावरण संशोधन, चिकित्सा उपचार जैसे अनेकानेक लाभ तो प्रत्यक्ष ही हैं। युवा मंडली, तुलसी का पौध उगा कर उनका आग्रहपूर्वक वितरण और थावला स्थापन का कार्य देखते-देखते सारे गांव, नगर में सुविस्तृत कर सकती है। इसी सन्दर्भ में हरी शाक वाटिका, पुष्प वाटिका लगाने का भी एक देखने में छोटा, परिणाम में बहुत ही महत्व का काम है। आंगन वाड़ी, घर वाड़ी में मौसमी शाक उगाये जा सकते हैं। चटनी के लिए पोदीना, धनिया, हरी मिर्च, अदरक, प्याज आदि तो गमलों में टोकरियों, पेटियों में ही इतने लग सकते हैं कि कुपोषण की समस्या हल करने वाला, भोजन को स्वादिष्ट बनाने वाला, आर्थिक बचत करने वाला सुयोग हर घर परिवार को मिलने लगे। हरीतिमा संवर्धन का कितना महत्व है इसे बताना इन पंक्तियों में तो सम्भव नहीं पर एक शब्द में इतना तो समझा ही जा सकता है कि प्रदूषण निवारण, आंखों की शीतलता, मस्तिष्क को शांति एवं घर की शोभा सज्जा प्रदान करने जैसे कितने ही लाभ घरों, आंगनों में लगाई जाने वाली शाक वाटिका, पुष्प वाटिका में हर किसी को उपलब्ध हो सकते हैं।
गन्दगी बढ़ाना और सहन करना अपने स्वभाव-समाज में घुसा हुआ बहुत बड़ा अभिशाप है। इसे सभ्यता और सुरुचि के लिए प्रस्तुत चुनौती ही समझा जाना चाहिए। श्रमदान से गली कूचों की, नालियों की, पोखर, तालाबों की, टूटे-फूटे रास्ते गड्ढों की मरम्मत करने के लिए युवकों की स्वयं सेवा मंडली चला करें तो फैलाने और सहन करने वालों को भी शर्म आएगी और इस परोक्ष मार्गदर्शन से सभ्यता का पहला पाठ स्वच्छ रहना सीखेंगे।
अपने देश में 70 प्रतिशत निरक्षर हैं। उनके लिए प्रौढ़ पाठशालाओं का होना आवश्यक है। शिक्षितों के लिए चल पुस्तकालयों द्वारा सत्साहित्य पहुंचाने का प्रबन्ध होना चाहिए। यह ऐसे रचनात्मक कार्य हैं जिन्हें हाथ में लेने वालों के सिर पर मुकुट रखे जाने या फोटो छपने जैसी लिप्सा तो नहीं सधती पर वैसे सेवा में कोई कमी भी नहीं रहती। अपना देश समाज आदि उठता बनता है तो उसके मूल में ऐसी ही सृजनात्मक प्रवृत्तियों का योगदान होगा। युवकों में शौर्य साहस और पराक्रम का जोश होता है। उनके एक कोने में योद्धा भी छिपा रहता है जो अवांछनीयता से जूझने के समय उभरता रहता है। इस पौरुष को सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध लोहा लेने के लिए आमंत्रण देना चाहिए और इन सर्वनाशी दुष्प्रवृत्तियों के विरुद्ध विद्रोह का झंझा खड़ा करने और उखाड़ फेंकने के लिए कटिबद्ध करना चाहिए। कुरीतियों में छुआ-छूत, जाति-पांति, मृतक भोज, भिक्षा व्यवसाय, भाग्यवाद, मुहूर्तवाद, टोना-टोटका, बाल विवाह आदि अनेकों को मिटाया जा सकता है इनके कारण अपने देश समाज की नैतिक, बौद्धिक और आर्थिक कितनी क्षति हुई है, प्रगति कितनी रुकी है और भ्रांतियों की तमिस्रा किस कदर फैली है इसका लेखा-जोखा लेने से रोंगटे खड़े होते हैं।
दुष्ट प्रचलनों में सर्वनाशी है—विवाहोन्माद। खर्चीली शादियां हमें दरिद्र और बेईमान बनाती हैं। दहेज के लेने देने में कितने घर परिवार बर्बाद हुए और दर-दर के भिखारी बने हैं, इसका बड़ा मर्म भेदी इतिहास है। बरात की धूमधाम, आतिशबाजी, गाजे बाजे, दावतें, दिखावे, प्रदर्शन में इतना अपव्यय होता है कि एक सामान्य गृहस्थ की आर्थिक कमर ही टूट जाती है। लड़की का मांस बेचने वाले, दहेज के व्यवसायी, अपने मन में भले ही प्रसन्न होते और नाक ऊंची देखते हों पर यदि विवेक से पूछा जाय तो इन अदूरदर्शियों के ऊपर दसों दिशाओं से धिक्कार ही बरसती दिखेगी। विवेकवान युवकों का कर्तव्य है कि दहेज न लेने, धूम धाम से शादी स्वीकार न करने की प्रतिज्ञा आन्दोलन चलायें और उस व्रत को अभिभावकों की नाराजगी लेकर भी निभायें। भावनाशील लड़कियां भी इस दुष्टता विरोधी संघर्ष में सम्मिलित हो सकती हैं और आजीवन कुमारी रहने का खतरा उठाकर भी इन लड़के, लड़की बेचने वालों के घर जाने से इन्कार कर सकती हैं। ऐसी शादियों में सम्मिलित न होने का असहयोग हर विवेकशील और नीति समर्थक को करना ही चाहिए। युवा पीढ़ी का कर्तव्य है कि वह इन सत्प्रवृत्तियों को अपनाये और अपना तथा समाज का भविष्य उज्ज्वल बनाने के लिए आगे आये।