
प्रज्ञा योग हृदयंगम करने योग्य तत्वदर्शन
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
मानवी सत्ता शरीर और आत्मा का सम्मिश्रण है। शरीर प्रकृति पदार्थ है। उसका निर्वाह स्वास्थ्य सौन्दर्य अन्न-जल जैसे प्रकृति पदार्थों पर निर्भर है। आत्मा चेतना है। चेतना का भंडागार है परमात्मा। आत्मा और परमात्मा की जितनी निकटता, घनिष्ठता होगी उतना ही अन्तराल समर्थ होगा। व्यक्तित्व विकसित परिष्कृत होगा। शरीरगत प्रखरता और चेतना क्षेत्र की पवित्रता जिस अनुपात में बढ़ती है उतना ही आत्मा और परमात्मा के बीच आदान-प्रदान चल पड़ता है। महानता के अभिवर्धन का यही मार्ग है। शरीर को प्रकृति की समीपता अनुकूलता मिले। आत्मा को पवित्रता और प्रखरता से सुसम्पन्न होने का अवसर मिले इसी निर्धारण पर सच्ची प्रगति एवं समृद्धि अवलम्बित है।
दो तालाबों के बीच नाली का सम्पर्क सम्बन्ध बना देने से ऊंचे तालाब का पानी नीचे तक आता रहता है जब तक कि दोनों की सतह समान नहीं हो जाती। आत्मा और परमात्मा को आपस में जोड़ने वाली उपासना यदि सच्ची हो तो उसका प्रतिफल सुनिश्चित रूप से यह होना चाहिये कि जीव और ब्रह्म में गुण, कर्म, स्वभाव की समता दृष्टिगोचर होने लगे। उपासना निकटता को कहते हैं। निकटता अर्थात् एकता-घनिष्ठता। आग और ईंधन निकट आते हैं तो दोनों एक रूप हो जाते हैं। इसके लिये साधक को साध्य के प्रति समर्पण करना होता है। उसके अनुशासन को जीवन नीति बनाना पड़ता है। जो इतना साहस और सद्भाव जुटा सके वह सच्चा भक्त। भक्त और भगवान की एकता प्रसिद्ध है। भक्त को अपनी आकांक्षा, विचारणा, आदत एवं कार्यपद्धति में अधिकाधिक उत्कृष्टता का समावेश करना होता है। आदर्शों का समुच्चय भगवान ही, भक्त का इष्ट एवं उपास्य है।
बेलें पेड़ों पर लिपट जाती है और जमीन पर रेंग सकने की स्वल्प सामर्थ्य से आगे बढ़कर पेड़ की चोटी तक चढ़ती चली जाती हैं। अपना सिर उठाने वाले के हाथ में सौंपने और उसके संकेतों का अनुसरण करने वाली पतंग पंख न होने पर भी आकाश में उड़ती है। नाला नदी में मिलकर हेय नहीं रहता, वरन् गंगा के समान पवित्र हो जाता है। लोहा पारस से घनिष्ठता स्थापित करके स्वर्ण बनता है। अमृत पीने पर मुर्दा नवजीवन पाता है। कल्पवृक्ष की छाया में बैठने वाला निहाल होकर रहता है। ये उदाहरण आत्मा की घनिष्ठता परमात्मा के साथ सधने के हैं। चन्दन के निकट उगे हुए झाड़-झंखाड़ भी सुगन्धित होते हैं। स्वाति-जल को आत्मसात करने वाली सीप रत्नगर्भा बनती है। पोले बांस का टुकड़ा वादक के होठों से लगकर वंशी कहलाता और राग-रागनियों का मनोरम उद्गम बनता है। बाजीगर के हाथों अपने धागे बंधा लेने पर लकड़ी की खपच्चियां कठपुतली का नाच नाचती और प्रशंसा पाती हैं। बूंद समुद्र में मिलकर तुच्छ से महान बनती है। दूध में मिल जाने पर पानी भी उसी भाव बिकता है। यही भक्त और भगवान की एकता में होता है। उस एकता का रूप आत्म समर्पण है। समर्पण अर्थात् अहंता और आकांक्षा का समापन। साथ ही ईश्वरेच्छा, उसकी प्रेरणा, आकांक्षा, उत्कृष्टता एवं विशालता का अन्तःकरण में अवधारण। पत्नी पति के प्रति ऐसा ही समर्पण करती है और बदलें में उसकी प्रतिष्ठा, प्रतिभा एवं स्नेहसिक्त आत्मीयता का पूरा-पूरा लाभ उठाती है। ईश्वर भक्ति का यही स्वरूप है। न इससे कम से काम चलता है न अधिक करना पड़ता है। बिजली घर के साथ सम्बन्ध जुड़ा रहने पर ही बल्ब, पंखे, हीटर आदि गतिशील रहते हैं। सम्बन्ध कट जाने पर वे बहुमूल्य उपकरण निष्क्रिय पड़े रहते हैं। ईश्वरीय घनिष्ठता से विमुख व्यक्ति नर पशुओं की तरह शिश्नोदर परायण रह सकते हैं पर आत्मिक प्रगति के अधिकारी नहीं बन सकते। आत्मिक प्रगति के अधिकारी नहीं बन सकते। आत्मिक प्रगति के लिये ईश्वर विश्वास की, समर्पण भक्ति की महती आवश्यकता है।
उपास्य परमेश्वर आदर्शों के समुच्चय को समझा जाना चाहिये। भगवान की प्रतिभाओं के पीछे उच्चस्तरीय चिंतन चरित्र की भावना है। वह भावना न हो तो प्रतिमायें खिलौना भर रह जाती हैं। सदाशयता के प्रति प्रगाढ़ आस्था बनाने में जिसका अन्तराल जितना सफल हुआ वह उसी स्तर का भगवत भक्त है। भक्त का गुण, कर्म, स्वभाव ईश्वर के सहचर पार्षदों जैसा होना चाहिए। जिस ईश्वर भक्ति के प्रतिफलों का वर्णन, स्वर्ग, मुक्ति, ऋद्धि-सिद्धि आदि के रूप में किया गया है, उसमें एकत्व, अद्वैत, विलय, विसर्जन की शर्त है। साधक भगवान को ही गर्व गौरव और हर्ष, सन्तोष अनुभव करता है।
अपनी निकृष्टता यथावत बनाये रहना, पात्रता और पुरुषार्थ का व्यतिरेक करके नियन्ता से चित्र-विचित्र मनोकामनाओं के लिये दबाव डालना, दुराग्रह करना, भक्ति भावना के सर्वथा विपरीत है। शब्द जंजाल से फुसलाने, छुटपुट उपहार देकर वर गलाने और स्वार्थ सिद्धि के लिए बहेलिये, मछुआरे जैसे छद्म प्रदर्शनों की विडम्बना रचना न तो ईश्वर भक्ति है और न उसके बदले किसी बड़े सत्परिणाम की आशा की जानी चाहिए। ईश्वर न्यायकारी है। उसके दरबार में पात्रता की कसौटी पर खरे खोटे को परखा जाता है। प्रामाणिकता ही अधिक अनुग्रह एवं अनुदान का कारण होती है। यह कार्य प्रार्थना, याचना के रूप में पूजा-अर्चा मात्र करते रहने से शक्य नहीं। ईश्वर भक्ति, कर्मकाण्ड प्रधान नहीं। उसमें भावना, विचारणा और गतिविधियों को अधिकाधिक उत्कृष्ट बनाना होता है। उसकी अपेक्षा करके मनुहार तक सीमित व्यक्ति आत्मिक उपलब्धियों से वंचित ही रहते हैं। उसके पल्ले थकान, निराशा और खीझ के अतिरिक्त और कुछ नहीं पड़ता।
संसार के हर क्षेत्र में पात्रता के अनुरूप अनुदान मिलने का नियम है। यही प्रचलन अध्यात्म क्षेत्र में भी है। कोई अपनी बेटी किसी भी याचना करने वाले को दे दे, ऐसा नहीं होता। जामाता की क्षमता, उपयुक्त हर कसौटी पर परखी जाती है, उसके बाद ही रिश्ता पक्का होगा। उच्च पदों के लिये प्रतिस्पर्धा होती है जो जीतते हैं वे नियुक्त होते हैं। दंगल में वही पहलवान पुरस्कृत होते हैं, जो कुश्ती पछाड़ते हैं। छात्रवृत्ति उन्हीं को मिलती है जो अच्छे नम्बर लाते हैं। प्रार्थना करने भर से बैंक मैनेजर किसी की हुंडी नहीं भुनाते। भिखारियों में भी उन्हीं को कुछ मिलता है जो अपनी असमर्थता प्रकट करते हैं। हट्टे-कट्टे याचक हर जगह दुत्कारे जाते हैं। ईश्वर के दरबार में अनुदान-वरदान उन्हीं के लिये सुरक्षित है जो प्रस्तुत उपलब्धियों का श्रेष्ठतम उपयोग करके यह सिद्ध करते हैं कि यदि उन्हें कुछ अधिक मिला तो वे उसे विलास, संचय, उद्धत प्रदर्शन कुपात्रों पर बिखेरने, दुर्व्यसन एवं अहंता के परिपोषण में दुरुपयोग नहीं करेंगे। स्मरण रहे ईश्वरीय अनुदान मात्र सत्पात्रों के हाथों उच्चस्तरीय उद्देश्यों की पूर्ति के लिए सौंपे जाते हैं। किसी की लिप्सा, लालसा, तृष्णा, अहंता की मनोकामना पूरी करने में ईश्वर को तनिक भी रुचि नहीं है। इसके लिये उसे पूजा का प्रलोभन देकर भी न्याय निष्ठा एवं कर्म व्यवस्था छोड़ने के लिये सहमत नहीं किया जा सकता है। उसकी निष्पक्ष न्यायशीलता में किसी भी कारण व्यतिरेक उत्पन्न नहीं किया जा सकता।
बादल सर्वत्र बरसते हैं। पर चट्टानें सूखी रहती हैं और गहरे तालाब में ढेरों पानी जमा होता है। दूसरों के अनुदान पाने के लिए अपनी पात्रता आवश्यक है। फूल खिलते हैं तो उन्हें भ्रमरों से प्रशंसा के गीत सुनने और तितलियों को श्रृंगार सज्जा जुटाने का सहयोग मिलते दीखता है। कीचड़ सड़ने पर वहां मक्खी, मच्छर, दुर्गन्ध तथा घिनौने कृमि-कीटकों के ही झुण्ड जुड़ते हैं। यह अपनी-अपनी पात्रता है। वृक्षों की आकर्षण शक्ति बादलों को बरसने के लिए विवश करती है। धातु खदानें दूर-दूर बिखरे स्वजातीय कणों को अपनी चुम्बक शक्ति से खींचती, घसीटती और भंडार बढ़ाती रहती हैं। आंख की पुतली सही हो तो संसार के दृश्य दीखेंगे। कान की झिल्ली सही हो तो शब्द संगीत सुनने को मिलेंगे। पाचन तन्त्र सही हो तो आहार से पोषण मिलेगा। अन्यथा ‘‘अपना ही दाम खोटा हो तो परखने वाले का क्या खोट’’ ‘‘ईश्वर मात्र उनकी सहायता करता है जो अपनी सहायता आप करते हैं।’’ इन तथ्यों को समझने वालों की उपासना, याचना स्तर की नहीं होती। वे पात्रता और प्रामाणिकता सिद्ध करने के लिए आत्म-शोधन और आत्म-परिष्कार का द्विविध पुरुषार्थ करते हैं। यही है वह मूल्य जिसकी कीमत पर अध्यात्म क्षेत्र की विभूतियां हस्तगत होती हैं। उपासना का स्वरूप एवं उद्देश्य यही है, जो उसे क्रिया कृत्यों की जादूगरी समझते हैं, वे भूल करते हैं। अध्यात्म-पराक्रम का केन्द्र बिन्दु है—आत्म परिष्कार। उपासनात्मक कर्मकाण्डों के सभी उपाय, उपचार साधक को पवित्रता और प्रखरता अपनाने के लिए उत्साहित और अग्रसर करते हैं। उनके द्वारा चित्र-विचित्र चमत्कार देखने और उपयुक्त अनुपयुक्त मनोरथ पूरा करने जैसी बिना पंखों की कल्पना उड़ानें नहीं उड़ी जानी चाहिए। ऐसे बेसिर पैर के रंगीन सपने किसी को भी नहीं देखना चाहिए। जादुई चमत्कारों के लिए, किसी देवता या सन्त के दर्शन अनुग्रह से लम्बी चौड़ी उपलब्धियां पाने की लालसा में उलझने की अपेक्षा यथार्थता इसमें है कि हम अन्तर्मुखी हों। अन्तर्जगत में छिपी हुई दिव्य शक्तियों को खोजें उभारें। पेड़ के पत्ते, पल्लव और फल, फूल देखकर यह अनुमान नहीं लगाना चाहिए कि यह ऊपर आसमान से टपके हैं वरन् जड़ों की उस मजबूती और गहराई को समझना चाहिए जो पेड़ के लिए खुराक बटोरती और भेजती रहती है किन्तु प्रत्यक्ष आंखों से दृष्टिगोचर नहीं होतीं। मानवी सत्ता की गरिमा, सफलता भीतर से उबलती है। देवताओं या सन्तों की अनुकम्पा तो उसे खरीदनी, सजाती भर है।
जन्म-जन्मान्तरों से संचित कुसंस्कारों को हठ पूर्वक निरस्त करना पड़ता है। अपने आपे से, अभ्यस्त ढर्रे से संघर्ष करने का नाम ‘‘तपश्चर्या है। इस उपाय से परिशोधन जन्य पवित्रता की उपलब्धि होती है। यह आत्मिक प्रगति का प्रथम चरण है। दूसरा है ‘योग साधना’। इसका अर्थ है दैवी विशिष्टताओं के साथ व्यक्तित्व को जोड़ देना। गुण, कर्म, स्वभाव में चिन्तन और चरित्र में उत्कृष्टता, आदर्शवादिता का समावेश करना। आत्म शोधन और आत्म परिष्कार की उस उभय पक्षीय प्रक्रिया को गलाई, ढलाई, धुलाई, रंगाई भी कहते हैं। इन्हीं को पवित्रता, प्रखरता का युग्म भी कहते हैं। सज्जनता और साहसिकता का समन्वय ही आत्मिक प्रगति का सच्चा स्वरूप है। हर किसी को यह देखते रहना चाहिए कि उसकी आन्तरिक समस्वरता बढ़ रही है या नहीं। इस प्रगति के साथ भौतिक क्षेत्र के जंजाल, प्रपंच स्वभावतः घटने लगते हैं और ‘‘सादा जीवन, उच्च विचार’’ अक्षरशः चरितार्थ होने लगते हैं।
अन्न, जल, वायु पर शरीर की स्थिरता एवं प्रगति निर्भर है। आत्मा की प्रगति के लिए उपासना, साधना एवम् आराधना के तीन आधार चाहिए। उपासना अर्थात् ईश्वर की इच्छा को प्रमुखता, उसके अनुशासन के प्रति अटूट श्रद्धा, घनिष्ठता के लिए निर्धारित उपासना प्रक्रिया में भावभरी नियमितता। साधना, अर्थात् जीवन साधना। संचित कुसंस्कारों एवम् अवांछनीय आदतों मान्यताओं का उन्मूलन। गुण, कर्म, स्वभाव, चिंतन, चरित्र में उत्कृष्टता का अधिकाधिक समावेश। आराधना अर्थात् लोक मंगल की सत्प्रवृत्तियों को अग्रगामी बनाने में उदार सहयोग, श्रमदान, अंशदान। यह तीनों ही प्रयास साथ-साथ चलने चाहिए। इनमें से एक भी ऐसा नहीं जो अपने आप में पूर्ण हो। इसमें से एक भी ऐसा नहीं जिसे छोड़कर प्रगति पथ पर आगे बढ़ाना सम्भव हो सके। हमारे जीवन की दिशाधारा में उपासना, साधना, आराधना का त्रिवेणी संगम अविच्छिन्न रूप से जुड़ा रहना चाहिए।
औसत देशवासियों का निर्वाह स्तर अपनायें। परिवार को छोटा रखें उसे सुसंस्कारी, स्वावलम्बी बनायें। बड़प्पन की लिप्सा छोड़ें। महानता का लक्ष्य अपनायें। शरीर आत्मा दोनों का हित साधें। निर्वाह के लिए न्यायोचित आजीविका उपार्जित करें। आत्मा का हित साधने के लिए चिंतन, चरित्र और व्यवहार में आदर्शवादिता का अधिकाधिक समावेश करते रहें। व्यक्तित्व के हर पक्ष को मानवी गरिमा के अनुरूप बनायें किन्तु अवांछनीयता से लड़ने के लिए हर समय लड़ाकू शूरवीर का बाना पहने रहें। जो उपलब्ध है उसका सदुपयोग करें। जो नहीं है उसके लिए प्रयत्न करें, किन्तु चिंतित, खिन्न, असन्तुष्ट कभी भी न रहें। हंसती-हंसाती, हलकी-फुलकी जिन्दगी ही किसी अध्यात्मवादी होने की निशानी हो सकती है।