
युगशिल्पी अहंमन्यता के विष-पान से बचे रहें
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
समुद्र मन्थन से चौदह रत्न निकलने पर उसमें सर्वप्रथम दो निकले एक हलाहल विष, तदुपरान्त मद्य। हलाहल देखने में अत्यन्त आकर्षक—नील वर्ण था। मद्य होठों तक पहुंचते-पहुंचते उन्मत्त-विक्षिप्त कर देने वाला। फिर भी उसकी ललक ऐसी थी कि जिसके एक बार स्वाद लग जाय फिर छूटने का नाम ही न लेगा। इस प्रथम उपलब्धि को पीन के लिए देव-दानव दोनों ही आतुर थे। पर प्रजापति ने दोनों को ही यह समझाने का प्रयत्न किया कि यह देखने और चखने में आकर्षक लगते हुए भी अन्ततः विनाश उत्पन्न करने वाले हैं। शिवजी ने हलाहल तो अपने कंठ में धारण कर लिया। मद्य के लिये आतुर दैत्यों ने हठपूर्वक उसे गटक लिया। फलतः उनकी सामर्थ्य उद्धत प्रयोजनों में लगी और पतन-पराभव का कारण बनी।
लोक-सेवा के क्षेत्र में प्रवेश करने वाले के सम्बन्ध में जन-साधारण की श्रद्धा उमड़ती है। परमार्थ की साहसिकता अपनाने वाले पर सम्मान बरसता है। उसकी प्रशंसा होती है। प्रशंसा भी एक सम्पदा है। सम्पदाओं की उपयोगिता तो है, पर उनके पीछे एक ऐसा आवेश भी रहता है, जो हजम न हो सके तो लाभ के स्थान पर विनाश की उत्पन्न करता है। धन हजम न हो तो दुर्व्यसन उत्पन्न करेगा। बुद्धि हजम न हो तो—कुचक्र षड्यन्त्र रचेगी। बल हजम न हो तो—उद्दण्डता के रूप में प्रकट होगा। हजम न होने पर तो अमृत भी विष बन जाता है। यश हजम न हो तो ऐसा अहंकार बनता है, जिसकी तुष्टि के लिए लोकसेवी को अपने चिन्तन, चरित्र, व्यक्तित्व एवं भविष्य को हेय स्तर का बनाकर उतना पतित बनना पड़ता है, जितने कि सेवा से सर्वथा दूर रहने वाले सामान्य श्रमिक भी नहीं होते। लोक सेवियों में से अधिकांश को अपने व्यक्तित्व और सेवा-क्षेत्र में ऐसे विग्रह उत्पन्न करते देखा जाता है, जिसे दुर्भाग्यपूर्ण दुर्घटना ही कहा जा सकता है और सोचना पड़ता है कि यदि यश हजम कर सकने में असमर्थ लोग लोक-सेवा के क्षेत्र में न आया करें तो वे अपनी और समाज की अधिक सेवा कर सकते हैं।
मनुष्य को पतन-पराभव के गर्त में गिरा देने वाली तीन दुष्प्रवृत्तियां हैं—वासना, तृष्णा और अहंता। शिश्नोदर परायण वासना-तृष्णा के लोभ, मोह में जकड़े रहकर किसी प्रकार कोल्हू के बैल की तरह नियति चक्र में परिभ्रमण करते हुए दिन गुजार लेते हैं। पर अहंता को चैन कहां? वह सारी प्रशंसा, सारा बड़प्पन, सारे अधिकार अपने ही हाथ में रखना चाहती है। दूसरे की साझेदारी उसे सहन नहीं। इसी विडम्बना ने संसार में सर्वाधिक विग्रह उत्पन्न किये हैं । लगता तो यह है कि लालच के कारण अपराध होते हैं। पर वास्तविकता यह है कि अहंता ही जहां-तहां टकराती और प्रतिशोध से लेकर आक्रमण, अपहरण, उत्पीड़न के विविध-विध अनाचार उत्पन्न करती है। अन्याय के अवरोध तो कहने भर की बात है। वह तो जहां-तहां जब-तब ही दृष्टिगोचर होते हैं। वास्तविकता यह है कि सामन्तवादी अनाचारों की बुभुक्षा नहीं अहंता ही उद्धत बनी और टकराई है। अनाचारों का विश्व इतिहास पढ़ने से प्रतीत होता है कि अभाव या अन्याय के विरुद्ध नहीं, अधिकांश विग्रह और युद्ध मूर्धन्य लोगों ने अहन्ता की परितृप्ति के लिए खड़े किये हैं। कंस, रावण, हिरण्यकश्यप, वृत्रासुर, सहस्रबाहु, जरासन्ध जैसे पौराणिक, सिकन्दर, नैपोलियन, चंगेजखां, आल्हा-ऊदल जैसे बर्बर लोगों ने जो रक्तपात किये उसके पीछे उनकी दर्प तुष्टि के अतिरिक्त और कोई कारण था नहीं।
यह चर्चा इन पंक्तियों में इसलिये की जा रही है कि युग-शिल्पियों के द्वारा आरम्भिक उत्साह में जो मार्ग अपनाया जा रहा है, उसमें लोक-मंगल का परमार्थ प्रयोजन द्रष्टव्य होने के कारण श्रेय-सम्मान एवं यश तो स्वभावतः मिलना ही है। यह पचे नहीं और उद्धत हो चले तो पागल हाथी की तरह अपना—साथियों का तथा उस संगठन का विनाश करेगा, जिसके नीचे बैठकर अपनी स्थिति बनाई है। हाथी पागल होता है तो अपनों पर ही टूटता है। इसी प्रकार लोकेषणा जब पागल होती है तो सर्वप्रथम वह साथियों को मूर्ख—छोटा अनुपयुक्त, खोटा सिद्ध करने का प्रयत्न करती है, ताकि तुलनात्मक दृष्टि से वह अपनी विशिष्टता सिद्ध कर सके। समान साथियों में मिल-जुलकर रहने में महत्वाकांक्षी का अपना वर्चस्व कहां उभरता है। इसलिए उसे साथी पेड़-पादपों का सफाया करना पड़ता है ताकि समूचे खेत में एक अरण्ड ही कल्पवृक्ष होने की शेखी बघार सके।
दृष्टि पसार कर अपने चारों ओर लोकेषणा का नग्न नृत्य देखा जा सकता है। राजनैतिक पार्टियों में होते रहने वाले अन्तर्कलह सिद्धान्तों की दुहाई भले ही देते रहें, पर वस्तुतः वे व्यक्तियों की महत्वाकांक्षा के निमित्त ही होते हैं। कल-परसों जनता पार्टी का बिखराव होकर चुका है। कितनी ही उपयोगी संस्थायें पदलोलुपों ने परस्पर टकरा कर अपने ही हाथों शिथिल या समाप्त कर दी। कौरव-पांडवों से लेकर यादव कुल के लड़-खपकर समाप्त हो जाने के पीछे लालच थोड़ा और दर्प को बड़ा कारण पाया जायेगा। धर्म-सम्प्रदायों के जो खण्ड होते चले गये हैं, उन प्रचलन कर्त्ताओं में सुधारक कम और श्रेय लोलुप अधिक रहे हैं। चुनावों के समय या बाद में जो विग्रह दृष्टिगोचर होते हैं—प्रतिशोध के नाम पर जो अनर्थ होते हैं, उसमें अनौचित्य कम और दर्प को नंगा नाच करते देखा जा सकता है। सास-बहू की लड़ाई आतंकित करने में यही तथ्य प्रमुख होता है।
बात इस सन्दर्भ में चल रही है कि युगशिल्पियों को सप्त महाव्रतों को अपनाने के लिए निर्देशन किया गया है कि उनका व्यक्तित्व उभरे और उस आधार पर आत्म-बल बढ़ाते हुए अधिक उच्चस्तरीय सेवा-साधन कर सकने में समर्थ हो सकें। यदि उनका पालन न किया गया और लोकेषणा से उत्पन्न विष का नियमित रूप से निष्कासन न किया गया तो वही दुर्गति होगी जो भोजन करने तथा मल-विसर्जन में उपेक्षा बरतने पर प्राण-संकट के रूप में उत्पन्न होती है। लोकसेवी को जनता सम्मान देती है, वह वस्तुतः उस सेवा-धर्म की पुण्य-परम्परा का—सूत्र-संचालक तन्त्र का सम्मान है। सत्प्रयोजनों के लिए लोक-श्रद्धा बनी रहे, मात्र इसी एक प्रयोजन के लिए सम्मान के प्रकटीकरण की प्रथा चली है। गलती यह होती है कि सेवाभावी उसे अपनी योग्यता का प्रतिफल मानते हैं। अहंकार में डूब जाते हैं और उसे अपना अधिकार समझने लगते हैं। जहां उसमें कमी होती है, वहां अप्रसन्न होते हैं। अधिक पाने के लिए आतुर रहते हैं। बंटवारा होने के कारण साथियों को हटाने या गिराने का प्रयत्न करते हैं। ऐसे ही हथकण्डे अधिक मात्रा में सम्मान पाने के लिए प्रयुक्त किये जाते हैं। इस आपाधापी में कौन कितना सफल हुआ यह तो ईश्वर ही जाने, पर यह आंख पसार कर सर्वत्र देखा जा सकता है कि यश-लोलुपता, पद-लोलुपता, अहंमन्यता किसी के छिपाये नहीं छिपती। उभर कर ऊपर आती है तो हर किसी को उसकी दुर्गन्ध आती है और बदले में घृणा, तिरस्कार पनपने लगता है। अनौचित्य के प्रति तिरस्कार का यह भाव सर्वप्रथम साथियों से आरम्भ होता है। चर्चा आगे बढ़ती है और यश-लोलुप के विरुद्ध असन्तोष-तिरस्कार का विस्तार क्रमशः अधिक क्षेत्र में होता चला जाता है। यही है वह प्रतिक्रिया जिसके कारण यश-लोलुप तिरस्कार के भाजन बनते और जिस श्रेय-सम्मान के अपनी सेवा-साधना के कारण अधिकारी थे, उससे भी वंचित होते चले जाते हैं।
बड़प्पन हर क्षेत्र में महंगा पड़ता है। धन, विद्या, सौन्दर्य, पद आदि के क्षेत्र में जो अपने को बड़ा सिद्ध करना चाहता है उन्हें तरह-तरह के आडम्बर खड़े करके यह प्रकट करना होता है कि उसके पास यह विशेषतायें हैं। लोग उसे देखें, समझें, सराहें। फैशन, ठाठ-बाट जैसे खर्चीले सरंजाम इसी विज्ञापनबाजी के लिये किये जाते हैं, ताकि देखने वालों की आंखें उन पर आयें। यही अनाचरण यश-लोलुपों को भी अपनाना पड़ता है। वे किसी न किसी बहाने अपनी शकल बार-बार लोगों को दिखाना चाहते हैं। इसके लिए उन्हें अनेकों ऐसे उद्धत आडम्बर रचने पड़ते हैं जिससे उनकी प्रमुखता सिद्ध होती है। स्टेज पर उनके बैठने का औचित्य का आमन्त्रण न होने पर भी वहां जा धमकते हैं। ऐसी जगह अकारण खड़े होते हैं, जहां लोभ उनकी शकल देखें और किसी महत्वपूर्ण ड्यूटी पर जमे हुए प्रतीत हों। अपने नाम फोटो छपाने के लिए आतुर रहना, किसी कार्य में दान दिया हो तो उसकी चर्चा स्वयं करने—दूसरों से कराने का रास्ता खोजना, दान-राशि के पत्थर जड़वाना—जैसी बचकानी हरकतें करने वाले प्रयत्न तो यशस्वी बनने का करते हैं, पर उनकी क्षुद्रता अनायास की प्रकट होती रहती है, फलतः वे घृणा-तिरस्कार के पात्र बनते हैं। यश के साथ परोक्ष यश से धन लूटने की भी सम्भावना जुड़ी रहती है। कितने ही इसका लाभ उठाते भी हैं, किन्तु स्पष्ट है कि ऐसे हथकण्डे अपनाने वाले आन्तरिक दृष्टि से पतित होते चले जाते हैं। फलतः वे सेवा क्षेत्र में न आने की अपेक्षा भी अधिक घाटे में रहते हैं। तिरस्कृत, उपेक्षित, बहिष्कृत की स्थिति में पहुंचे हुए अनेक तथाकथित नेता ऐसे पाये जा सकते हैं, जो येन-केन प्रकारेण सम्मान जनक स्थान तक जा पहुंचने—जा बैठने में तो सफल हो जाते हैं, पर सम्पर्क क्षेत्र में सघन श्रद्धा से क्रमशः अधिकाधिक वंचित होते चले जाते हैं।
यह अहंता के परिपोषण का प्रतिफल है, जिसे लोकसेवी अनजाने ही अपनाने लगते हैं। स्मरण रखा जाय, यह घुड़-दौड़ अत्यन्त महंगी, घाटे की और मूर्खतापूर्ण है। सड़क पर नंगा-नाच कर भी लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया जा सकता है, पर उससे कुछ बनता नहीं। जिस प्रकार बड़प्पन पाने के लिए उद्धत प्रदर्शन करने वाले नट, विदूषक समझे जाते हैं, उसी प्रकार यश लिप्सा भी व्यंग्य, उपहास, तिरस्कार का कारण बनती है। समाने कोई कहे भले ही नहीं, पर इस तथ्य के थोड़ा-सा पर्यवेक्षण करने पर सरलता पूर्वक चरितार्थ होते देखा जा सकता है कि प्रमुखता सिद्ध करने के लिए चित्र-विचित्र स्वांग बनाने वाले नाटक में मुखौटे, परिधान पहन कर कभी राजा, कभी ऋषि बनने वाले की तरह अपनी अवास्तविकता का ढिंढोरा स्वयं ही पीटते फिरते हैं। उसमें उन्हें श्रम, समय, धन और चातुर्य का निरर्थक अपव्यय करना पड़ता है। मूर्ख या चमचे इर्द-गिर्द इकट्ठा करके उनके बीच रंगे सियार द्वारा वन-राजा बनने का ढकोसला भर खड़ा किया जा सकता है, पर उससे मिलना क्या है? परोक्ष व्यंग्य, उपहास और अपने साथ जो गहरी अवज्ञा छिपाये रहते हैं, उससे लोकसेवक विदूषक स्तर का बनकर रह जाता है। इस दुर्मतिजन्य दुर्गति का यदि पूर्वाभास रहे तो लोक-सेवा क्षेत्र में प्रवेश करने वाले आरम्भ से ही सहज रहें और खिलवाड़ रचने की अपेक्षा अमानी रहने का मार्ग चुनें। विज्ञापनबाजी के बचकर नम्रता जन्य स्नेह, सौजन्य अपनाने वाले वस्तुतः अधिक श्रेयाधिकारी बनते हैं। यश-लिप्सा की छाया की भांति है, उसके पीछे दौड़ने वाले असफल रहते और थकान, खीझ, पश्चात्ताप के अतिरिक्त और कुछ पाते नहीं। इनकी अपेक्षा वे कहीं नफे में रहते हैं, जो श्रेय दूसरों को बांटते हैं, स्वयं पीछे रहते हैं। विनम्र स्वयंसेवक की तरह जिन्हें अपने श्रम, साधन, परामर्श-परायणता के आधार पर मिलने वाले आत्म-सन्तोष को ही पर्याप्त मानने की विवेक दृष्टि रहती है, वे अनचाहा यश पाते हैंद्य उन्हें वह गहरा स्नेह, सद्भाव प्राप्त होता है, जिसके साथ साथियों—परिचितों का विश्वास और सहयोग प्रचुर मात्रा में जुड़ा रहता है। दूरदर्शिता इसी में है कि लोक-सेवी सच्चे मन से यश, पद-लोलुपता—अहंता छोटे । विनम्रता अपनायें। दूसरों को आगे रखें, स्वयं पीछे रहें। अपना बखान आप न करें। अपना चेहरा चमकायें नहीं वरन् उस तरह रहे जैसे कि सादा जीवन—उच्च विचार के सिद्धान्त में आस्था रखने वाले अपने दृष्टिकोण, चरित्र, व्यवहार में अधिकाधिक शालीनता भरते और मानवता के उच्च पद पर अपनी विशिष्टता के कारण जा पहुंचते हैं।